सिद्धान्त ज्योतिष
'ज्योतिष' (Astrology) शब्द का अर्थ है - ज्योति, अर्थात् प्रकाशपुंज, संबंधी विवेचन। अति प्राचीन काल से ही इससे उस विद्या का बोध होता रहा है, जिसका संबंध खगोलीय पिंडों, अर्थात् ग्रहनक्षत्रों, के विवेचन से है। इसमें खगोलीय पिंडों की स्थिति, उनके गतिशास्त्र तथा उनकी भौतिक रचना पर विचार किया जाता है।
परिचय
अतिप्राचीन काल में मानव का ध्यान इन आकाशीय पिंडों की ओर गया और उसने शीघ्र ही यह समझ लिया कि ग्रहनक्षत्रों की स्थिति से वह दिक्, देश तथा काल का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। सबसे पहले उसका ध्यान सूर्य तथा चंद्रमा की ओर गया और उनके साथ ही उन नक्षत्रों की ओर जिन्हें वह स्थिर जानता था और जिनकी पृष्ठभूमि पर वह सूर्य और चंद्रमा की गतियों को नाप सकता था। विशेषतया उसने उन क्षेत्रपुंजों का अध्ययन किया जो सूर्य तथा चंद्रमा दृश्य कक्षाओं (aapparentorbits) के आसपास थे। सूर्य की दृश्य कक्षा के 27 भाग करके उनका नाम अश्विनी, भरणी आदि रखा और उसी के तीस तीस अंशों के 12 भाग करके उनका राशिनाम मेष, वृष आदि रख दिया। राशिचक्र का अध्ययन करते समय उसने कुछ ऐसे पिंड जो देखने में तो तारा सरीखे लगते थे, किंतु वे तारों के सापेक्ष पूर्व की तरफ चलते दिखाई पड़ते थे। इनका नाम उसने ग्रह रखा। पृथ्वी को स्थिर माना तथा सूर्य, चंद्र सहित पाँच चक्षु दृश्य ग्रहों, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि का ज्ञान प्राप्त किया। इसी से सप्ताह के सात वारों का नाम पड़ा और उस पंचागपद्धति (calendar) का जन्म हुआ जो अभी तक चली आ रही है। इतना ज्ञान विश्व के कुछ देशों, विशेषतया भारत तथा ग्रीस के निवासियों को ईसा की पहली अथवा दूसरी शताब्दी तक हो चुका था। वेध के सूक्ष्म यंत्रों के अभाव तथा धार्मिक रूढ़ियों के कारण इसमें प्रगति नहीं हो सकी। आधुनिक ज्योतिष का जन्म कोपर्निकस की सूर्यकेंद्रिक प्रणाली के सिद्धांत, गैलिलीयों के दूरदर्शी, केपलर के अनुभूत (emperical) गतिनियमों तथा न्यूटन के व्यापक गुरुत्वाकर्षण सिद्धांतों से हुआ।
सिद्धांत की दृष्टि से हम ज्योतिष को तीन भागों में बाँट सकते हैं :
- स्थितिद्योतक ज्योतिष (Positional Astrology),
- गतिशास्त्रीय ज्योतिष (Dynamical Astrology) तथा
- भौतिक ज्योतिष (Physical Astrology).
स्थितिद्योतक ज्योतिष[संपादित करें]
इसके द्वारा किसी भी खगोलीय पिंड की भूमिस्थित द्रष्टा के सापेक्ष स्थिति को ज्ञात किया जाता है। इसके लिये हम एक भूकेंद्रिक स्थिर खगोल की कल्पना करते हैं। पृथ्वी के अक्ष को यदि अपनी दिशा में बढ़ा दिया जाय तो वह जहाँ पर खगोल में लगेगा उसे खगोलीय ध्रुव कहेंगे। खगोल के उस वृत्त को, जो खगोलीय ध्रुव तथा शिरोबिंदु से होकर जायगा, याम्योत्तर वृत्त कहेंगे। यदि शिरोबिंदु से याम्योत्तर वृत्त के 90o के चाप दोनों ओर काट लें तो उन बिंदुओं से जानेवाले खगोल के वृत्त को खगोलीय क्षितिजवृत्त तथा याम्योत्तर वृत्त के उस संपात बिंदु को, जो खगोलीय ध्रुव की ओर है, उत्तरबिंदु तथा दूसरी ओर के संपातबिंदु को दक्षिणबिंदु कहेंगे। यदि खगोलीय ध्रुव से याम्योत्तर के दोनों ओर 90o को चाप काटकर उनसे किसी खगोलीय वृत्त को खींचें, तो उसे खगोलीय विषुवद्वृत्त कहते हैं। सूर्य की दृश्य कक्षा अथवा पृथ्वी की वास्तविक कक्षा को क्रांतिवृत्त कहते हैं। क्रांतिवृत्त तथा खगोलीय विषुवद् वृत्त से 23o 28' का कोण बनाता है। क्रांतिवृत्त तथा खगोलीय विषुवद्वृत्त के संपात को विषुवबिंदु कहते हैं। जिस विषुवबिंदु पर सूर्य लगभग 21 मार्च को दिखाई पड़ता है। उसे वसंतविषुव कहते हैं। किसी भी खगोलीय पिंड की स्थिति उसके निर्देशांकों से ज्ञात हेती है। निर्देशांकों के लिये एक मूल बिंदु, खगोल का वह बृहदवृत्त जिसपर वह बिंदु है, बृहद्वृत्त का ध्रुव, तथा निर्देशांक की धन, ऋण दिशाओं का ज्ञान आवश्यक है। मान लें, हमें किसी तारे के नियामक ज्ञात करने हैं। यदि याम्योत्तरवृत्त तथा खगोलीय विषुवद्वृत्त के ऊपर अभीष्ट तारागामी एक समकोणवृत्त (ध्रुवप्रोत वृत्त) खींचे, तो इस वृत्त पर याम्योत्तर तथा विषुवद्वृत्त के सपात से पश्चिम की ओर धन दिशा मानने पर जितना चाप का अंश होगा वह उसका होरा कोण (Hour angle) तथा समकोण वृत्त के मूल से अभीष्ट तारा तक समकोणीय वृत्त (ध्रुवप्रोत वृत्त) के चाप को क्रांति कहेंगे। क्रांति यदि खगोलीय ध्रुव की ओर है तो, धन अन्यथा ऋण, होगी। यदि बसंतविषुव को मूलबिंदु मानें और खगोलीय ध्रुव से विषुवद्वृत्त पर समकोण वृत्त खींचें तो विषुवबिंदु से समकोणवृत्त के मूल तक, घड़ी की सूई की उल्टी दिशा में, जितने चाप के अंश होंगे उन्हें विषुवांश कहेंगे। विषुवांश तथा क्रांति के द्वारा भी खगोलीय पिंड की स्थिति का ज्ञान होता है। यह निर्देशांक पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है। यदि शिरोबिंदु से इष्ट खगोलीय पिंड पर समकोण वृत्त खींचे तो उत्तरबिंदु से घड़ी की सूई की दिशा में खगोलीय क्षितिज वृत्त तथा समकोणवृत्त के संपात की दूरी (चापीय अंशों में) दिगंश (azimuth) तथा समकोण वृत्त के चाप की क्षितिजवृत्त से खगोलीय पिंड तक दूरी उन्नतांश होगी। यदि तारा के ऊपर क्रांतिवृत्त के ध्रुव (कदम्ब बिंदु) से एक समकोणवृत्त खींचे तो वह जहाँ क्रांतिवृत से लगेगा यहाँ तक वसंतसंपात से लेकर घड़ी की सूई की विरुद्ध दिशा में क्रांतिवृत्त के चाप के अंशों का भोगांश तथा कटानबिंदु से तारा तक समकोणवृत्त के चाप के अंशों को विक्षेप कहेंगे। इसी धन दिशा क्रांति की तरह होगी। यदि विषुवसंपात के स्थान पर आकाशगंगा के विषुवद् तथा खगोलीय विषुवद का संपातबिंदु लें तथा क्रांतिवृत्त के ध्रुव के स्थान पर आकाशगंगा के विषुवद्वृत्त का ध्रुव लें तो हमें आकाशगंगीय भोगांश तथा विक्षेप प्राप्त होंगे। यदि वसंतविषुव को स्थिर मान लें, तो सूर्य के वसंतबिंदु से चलकर पुन: वहाँ पहुँचने के समय को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं। यह 365.25636 दिन का होता है। पृथ्वी का अक्ष चल होने के कारण विषुवसंपात प्रति वर्ष 50.2 के लगभग पीछे हट जाता है। सूर्य के चल विषुवसंपात की एक परिक्रमा के समय को सायन वर्ष कहते हैं। यह 365.2422 दिन का होता है। वास्तविक सूर्य की गति एक सी नहीं दिखलाई देती। अत: कालगणना के लिये विषुवद्वृत्त में एक गति से चलनेवाले ज्योतिष-माध्य-सूर्य की कल्पना की जाती है। उसके एक याम्योत्तर गमन से दूसरे याम्योत्तर गमन को माध्य-सूर्य-दिन कहते हैं। हमारी घड़ियाँ यही समय देती हैं। वास्तवसूर्य तथा ज्योतिष-माध्य-सूर्य के होराकोण के अंतर को कालसमीकार कहते हैं। वायुमंडलीय वर्तन, अपेरण, भूकेंद्रिक लंबन और अयन तथा विदोलन गति के कारण हमें गणित द्वारा उपलब्ध स्थान से आकाशपिंड कुछ हटे से दिखलाई देते हैं। अत: वास्तविक स्थिति का ज्ञान करने के लिये हमें उसमें उपयुक्त संशोधन करने पड़ते हैं।
गतिशास्त्रीय ज्योतिष[संपादित करें]
गतिशास्त्रीय ज्योतिष में हम न्यूटन के व्यापक गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के प्रयोग द्वारा खगोलीय पिंडों की गतियों, कक्षाओं आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसमें हम सापेक्ष (relativistic) संशोधन कर देते हैं। इसका सफलतापूर्वक प्रयोग सौर परिवार, युग्म तारा, तथा बहुतारा पद्धतियों में हो चुका है।
भौतिक ज्योतिष[संपादित करें]
भौतिक ज्योतिष में हम आकाशीय पिंडों की भौतिक स्थितियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके लिये हमारे मुख्य यंत्र वर्णक्रमदर्शी, प्रकाशमापी, तथा रेडियो दूरदर्शी हैं। वर्णक्रम विश्लेषण से हम आकाशीय पिंड के वायुमंडल, तापमान, मूलतत्व आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
आकाशीय पिण्ड[संपादित करें]
आकाशीय पिंडों को हम प्राय: तीन भागों में बाँटते हैं :
(1) सूर्य तथा उसके परिवार के सदस्य,
(2) तारे तथा
(3) आकाशगंगाएँ
सूर्य[संपादित करें]
सूर्य हमारा निकटतम तारा है। यह गैसों से बना गोला है, जिसका व्यास 13,93,000 किलोमीटर है। इसका माध्य (mean) व्यास 31' 59.3 0.1 है, यह सौर परिवार के केंद्र में है तथा इसकी द्रव्यमात्रा अत्यधिक होने के कारण यह अपने परिवार के सदस्यों की गतिविधि पर पूर्ण नियंत्रण रखता है। इसकी पृथ्वी से दूरी नौ करोड़ 30 लाख मील के लगभग, अथवा (1.4960 ± .0003) ´ 108, किलोमीटर के तुल्य है। इसे ज्यौतिष इकाई कहते हैं तथा सौर परिवार की कक्षाओं की दूरियाँ प्राय: इसी इकाई में व्यक्त की जाती हैं। इसकी द्रव्यमात्रा (1.991 ± .002) ´ 1033, ग्राम है। इसका सामान्य अवस्था में घनत्व पानी के सापेक्ष 1.410 ± .002 है। इसके धरातल का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का 27.89 गुना है। इसके पृष्ठतल का ताप 6,000 सेंo, केंद्र का ताप लगभग 2,00,00,000 सेंo तथा प्रकाशमंडल (Photosphere) का लगभग 5,000 सेंo है। इसका फोटो दृष्ट (photovisual) कांतिमान (magnitude) - 26.73 ± .03 है। सूर्य के पृष्ठतल की चमक प्रति वर्ग इंच 15,00,000 कैंडल पावर है। इसका निरपेक्ष कांतिमान 4.84 ± .03 है। इसके घूर्णाक्ष (axis of rotation) का आनतिकोण 7° 15' है। यह प्रति सेकंड (3.86 ± 03)1033 अर्ग ऊर्जा (energy) प्रसारित करता है। पलायन वेग (velocityof escape) पृथ्वी के पृष्ठतल पर 11 किलोमीटर प्रति सेकंड तथा सूर्य के पृष्ठ पर 618 किलोमीटर प्रति सेकंड है। सूर्य के तल पर, अपेक्षाकृत धुँधली पृष्ठीभूमि पर, असंख्य प्रकाशकण से दिखलाई देते हैं, जो चावल के कणों सरीखें प्रतीत होते हैं। वस्तुत: वे बहुत उष्ण बादल हैं जो अपेक्षाकृत धुँधली पृष्ठभूमि पर उड़ा करते हैं। सूर्य के प्रकाश मंडल में दूरदर्शी से देखने पर बड़े बड़े काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। ये प्रकाशमंडल के कम ताप के स्थान हैं। इनका ताप लगभग 4,000 केo होता है। इन्हें सूर्यकलंक कहते हैं। इनके वेध से पता चलता है कि सूर्य पृथ्वी के सापेक्ष अपनी धुरी की 27.25 दिन में परिक्रमा करता है। सूर्य की अपने अक्ष के सापेक्ष परिक्रमा का नक्षत्रकाल 25.35 दिन है। सूर्यकलंकों के पास कुछ चमकते भाग भी दिखलाई देते हैं, इन्हें अतिभा (faculae) कहते हैं। जहाँ सूर्यकलंक होते हैं वहाँ अतिभा अवश्य होते हैं। सूर्य का वायुमंडल उत्क्रमण परत (Reversing layers) से प्रारंभ होता है। इसे सूर्य के वास्तविक वायुमंडल का भाग समझना चाहिए। यह सैंकड़ों मील घना है तथा इसका ताप प्रकाशमंडल से कम है। इसमें हाइड्रोजन तथा हीलियम का आधिक्य है, न्यून मात्रा में सिलिकन, आक्सजीन तथा अन्य परिचित गैसें भी मिलेंगी। उत्क्रमण परतों के ऊपर वर्णमंडल (chromosphere) है। यह पूर्ण ग्रहण के अवसर पर ही दिखलाई देता है। इसका विस्तार 6,000 मील तक है। इसमें कैल्सियम, हाइड्रोजन तथा हीलियम पाए जाते हैं। इसका विस्ता एकरूप नहीं है। वर्णमंडल में सूर्य की कुछ महत्वपूर्ण आकृतियाँ हैं जिनमें से एक उड़ती हुई आग की लपटें हैं, जिन्हें सौर ज्वाला कहते हैं। कभी कभी ये सूर्य के प्रकाशमंडल से हजारों मील ऊपर उठी दिखाई देती हैं। पूर्ण ग्रहण के अवसर पर जब सूर्य का बिंब चंद्रमा से पूर्णतया ढक जाता है तब वर्णमंडल से ऊपर अत्युज्वल शुभ्र प्रकाश का जो परिवेष (halo) दिखाई देता है उसे सूर्यकिरीट (corona) कहते हैं।
सौर परिवार[संपादित करें]
जो खगोलीय पिंड सूर्य की परिक्रमा करते हैं वे सौर परिवार के सदस्य हैं। इनमें ग्रह (Planet), उपग्रह, क्षुद्रग्रह (Asteroids), घूमकेतु (Comets) तथा उल्काएँ (Meteors) हैं।
ग्रह[संपादित करें]
वे खगोलीय लघु ठोस पिंड जो किसी तारे की, विशेषतया सूर्य की, परिक्रमा करते हैं ग्रह हैं। सौर परिवार के ग्रह हैं : बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, गुरु शनि, वारुणी (Uranus) तथा वरुण (Neptune)। इनमें बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल तथा यम छोटे हैं तथा गुरु, वारुणी और वरुण विशाल हैं। बुध तथा शुक्र की कक्षाएँ सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी की कक्षा के भीतर पड़ती है। अत: इन्हें अंतर्ग्रह कहते हैं। शेष बहिर्ग्रह हैं।
ग्रहों की कक्षाएँ[संपादित करें]
ग्रह ऐसी दीर्घवृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं, जिनकी एक नाभि में सूर्य है। दोनों नाभियों से परिधि तक जानेवाली सरल रेखा को दीर्घ अक्ष (major axis) तथा दीर्घवृत्त के केंद्र से दीर्घ अक्ष पर लंब रेखा के परिधि पर्यंत भाग को लघु अक्ष (minor axis) कहते हैं। दीर्घवृत्त परिधि का वह बिंदु जो रवि के निकट दीर्घ अक्ष पर स्थित है उसे रविनीच, तथा जो बिंदु दीर्घ अक्ष के दूसरी ओर है उसे सूर्योच्च कहते हैं। दीर्घ अक्ष पर सूर्योच्च तथा रविनीच स्थिति हैं, इसलिये इसे नीचोच्च रेखा कहते हैं। रविनीच से नाभि स्थित सूर्य पर परिधि का कोण कोणिकांतर (Anomaly) कहलाता है। ग्रह के रविनीच अथवा सूर्योच्च के सापेक्ष परिक्रमा काल को परिवर्ष कहते हैं। ग्रहों की कक्षाएँ क्रांतिवृत्त के धरातल में नहीं हैं, किंतु उससे झुकी हुई हैं। ग्रह की कक्षा तथा क्रांतिवृत्त के संपातबिंदु को पात कहते हैं। जहाँ से ग्रह क्रांतिवृत्त से ऊपर की ओर जाता है वह बिंदु अरोहपात कहलाता है तथा दूसरा आवरोहपात। आकाश में ग्रह की स्थिति जानने के लिये हमें ग्रह का दीर्घ अक्ष, उत्केंद्रता (eccentricity), कक्षा की क्रांतिवृत्त से नति (inclination), निर्देशक्षण (epoch), सूर्योच्च की स्थिति तथा पात की स्थिति का ज्ञान करना आवश्यक है। ग्रहों में घूर्णन (rotation) तथा परिक्रमण (revolution) की दो प्रकार की गतियाँ पाई जाती हैं। एक तो वे अपने कक्षा में चलते हुए सूर्य की परिक्रमा करते हैं, इसे उनका परिक्रमण कहते हैं। जब कोई ग्रह किसी तारे के सापेक्ष सूर्य की परिक्रमा करता है, तो उसे उसका नाक्षत्र काल कहते हैं। ग्रह के पृथ्वी के सापेक्ष परिक्रमण काल को संयुति काल कहते हैं।
ग्रहों की पृथ्वी के सापेक्ष गति[संपादित करें]
पृथ्वी के निवासियों को बहिर्ग्रह तो पृथ्वी की परिक्रमा करते दिखलाई देते हैं, किंतु अंतर्ग्रह सूर्य से पूर्व तथा पश्चिम दोलन (oscillation) करते दिखलाई देते हैं। यह उनकी कक्षाओं की विशेष स्थिति के कारण है। पृथ्वी के सापेक्ष अंतर्ग्रह की सूर्य से चरमकोणीय दूरी को चरम वितान (maximum elongation) कहते हैं। जब अंतर्ग्रह सूर्य तथा पृथ्वी को मिलानेवाली सरल रेखा में होता है तो उसे ग्रह की अंतर्युति तथा जब अंतर्ग्रह तथा पृथ्वी को मिलानेवाली सरल रेखा सूर्य के केंद्र से होकर जाती है तो उसे बहिर्युति कहते हैं। बहिर्ग्रह को पृथ्वी से मिलानेवाली रेखा जब सूर्य में से होकर जाती है, तो उसे संयुति (conjuction) तथा जब ग्रह पृथ्वी और सूर्य को मिलानेवाली रेखा के बीच में रहता है तो उसे ग्रह की वियुति (opposition) कहते हैं। ग्रह की एक संयुति से दूसरी संयुति तक के समय को संयुतिकाल कहते हैं बहिर्ग्रहों का यही, पृथ्वी के सापेक्ष, राशिचक्र की परिक्रमा का काल होता है। अंतर्ग्रह प्राय: पृथ्वी की परिक्रमा काल में ही राशिचक्र की परिक्रमा करते हैं। अपनी कक्षाओं में गति की दिशा एक ही होने के कारण अंतर्ग्रह अंतर्युति के आसन्न तथा बहिर्ग्रह वियुति के आसन्न काल में पृथ्वी के सापेक्ष विरुद्ध दिशा में चलते प्रतीत होते हैं। इस कारण ये हमें राशिचक्र में पश्चिम की ओर जाते दिखलाई देते हैं। यह ग्रहों की वक्रगति है। ग्रहों की, वक्रगति प्राप्त करने के कुछ समय पूर्व, पृथ्वी के सापेक्ष गति स्थिर हो जाती है। इससे ग्रह स्थिर से प्रतीत होते हैं। अंतर्युति अथवा वियुति के समय में ग्रह की वक्र गति परमाधिक होती है1 उसके कुछ काल बाद यह कम होने लगती है, फिर ग्रह स्थिर प्रतीत होकर ऋजु गति से चलते लगता है।
ग्रहकलाएँ[संपादित करें]
अंतर्ग्रहों के प्रकाशित भाग चंद्रमा की तरह कम तथा अधिक प्रकाशित होते रहते हैं और ये कलाएँ प्राप्त करते हैं। इनके आकारों के अति छोटा होने के कारण बिना यंत्र के इनकी कलाएँ दिखलाई नहीं पड़तीं। बहिर्ग्रहों की कलाएँ सदा अर्धाधिक रहती है।
उपग्रह[संपादित करें]
जस प्रकार ग्रह सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण सूर्य की परिक्रमा करते हैं, उसी प्रकार उपग्रह ग्रहों की परिक्रमा करते हैं। व्यापक गुरुत्वाकर्षण नियम से यह स्पष्ट है कि इनकी द्रव्यमात्राएँ अपने ग्रहों से कम होती हैं। पृथ्वी के उपग्रह का चंद्रमा कहते हैं। चंद्रमा का हमारे जीवन से बहुत संबंध है। धार्मिक कृत्यों के लिये अभी बहुत से देशों में चांद्र मासों का व्यवहार किया जाता है। चंद्रमा को प्राचीन काल में ग्रह माना जाता था। पृथ्वी के अतिरिक्त मंगल के दो, गुरु के 12, शनि के 9, वारुणी (यूरेनस) के 5, तथा वरुण (नेप्चून) के 2 उपग्रह हैं। बुध, शुक्र तथा यम का कोई भी उपग्रह नहीं है1
ग्रहण तथा ताराप्रच्छादन[संपादित करें]
जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है तो अमावस्या के दिन पृथ्वी पर दृश्य सूर्य का भाग उससे ढक जाता है। इसे सूर्यग्रहण कहते हैं। इसी प्रकार जब पूर्णिमा की रात में चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रविष्ट होकर प्रकाशहीन हो जाता है तो उसे चंद्रग्रहण करते हैं। सूर्य तथा चंद्रमा के ग्रहण बहुत प्रसिद्ध हैं। सूर्य के ग्रहणों से सूर्य के वायुमंडल तथा किरीट की प्रकृति के अध्ययन में बहुत सहायता मिलती है। गुरु के उपग्रहों के ग्रहणों के अध्ययन से सर्वप्रथम प्रकाश के वेग को ज्ञात किया गया। चंद्रमा द्वारा ताराओं के ढके जाने को ताराप्रच्छादन (occulation) कहते हैं (देखें - ग्रहण)!
क्षुद्रग्रह[संपादित करें]
बोडे ने ग्रहों की सूर्य से दूरियाँ ज्यौतिषीय इकाई में ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित नियम बताया था--
दू 0.4 + 0.3 ´ 2न, जहाँ न = - ¥, 0,1,2,3,4,........इससे बुध की दूरी 0.4, शुक्र की दूरी = 0.7, पृथ्वी की दूरी --1.0 तथा मंगल की दूरी 1.6 प्राप्त हुई।
यहाँ तक तो प्राय: ठीक है, किंतु गुरु की दूरी इस नियम से ठीक नहीं बैठती। परंतु यदि हम बीच में किसी और ग्रह की कल्पना कर लें, तो शेष ग्रहों की दूरियाँ इस नियम से ठीक बैठ जाती हैं। इसलिये ज्योतिषियों ने मंगल तथा गुरु की कक्षा के बीच अन्य ग्रह की खोज शुरू की। इससे उन्हें बहुत से क्षुद्रग्रह मिले। सर्वप्रथम क्षुद्रग्रह सीटो का आविष्कार जनवरी, 1801 ईसवी में इटली के ज्योतिषी पियाज़ी ने किया था। सन् 1950 में क्षुद्रग्रहों की संख्या 1,600 तक पहुँच गई थी। अनुमान है कि इनकी संख्या 1,00,000 होगी।
धूमकेतु[संपादित करें]
ये अति न्यून घनत्ववाली द्रव्यमात्रा के बने आकाशीय पिंड हैं, जो सूर्य के समीप आने पर सूर्य से विपरीत दिशा में बहुत दूर तक पुच्छ जैसे अपने भाग को प्रकाशित करते हैं। इनके आकार को मुख्यतया दो भागों में बाँटा जाता है। गोलाकार घने प्रकाशित भाग को सिर तथा हलके प्रकाशित भाग को पुच्छ कहते हैं। सिर में इनका नाभिक होता है। ये सूर्य के नियंत्रण में शांकव मार्गों में जाते हैं। इनमें कुछ की कक्षाएँ परवलयाकार तथा अतिपरवलयाकार दिखलाई पड़ती हैं, जिससे प्रतीत होता है कि कदाचित् गुरु ने अपने आकर्षण के कारण इन्हें सौर परिवार का सदस्य बना लिया। बहुत से धूमकेतु दीर्घवृत्ताकार कक्षाओं में नियतकाल में परिक्रमण करते हैं। इनमें हैलि (Halley) का धूमकेतु प्रसिद्ध है। धूमकेतुओं की गति पर गुरु का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इसके कारण इनकी कक्षा बदल जाती है। प्राचीन काल में धूमकेतु का दिखाई पड़ना अनिष्ट का सूचक माना जाता था।
उल्काएँ[संपादित करें]
बहुधा रात्रि के समय कुछ चमकीले पदार्थ पृथ्वी की ओर अतिवेग से आते दिखाई देते हैं। इन्हें तारा का टूटना या उल्कापात कहते हैं। उल्काएँ हमें तभी दिखलाई देती हैं जब ये अतिवेग से पृथ्वी के वायुमंडल में घुसती हैं। इनका वेग 11 से लेकर 62 किलोमीटर प्रति सेकेंड तक रहता है। ये जब हमारे धरातल से 100 तथा 120 किलोमीटर की दूरी के भीतर होती हैं तो हमें प्रथम बार दिखलाई पड़ती हैं और 50 या 60 किलोमीटर की दूरी तक आने पर अदृश्य हो जाती हैं। वस्तुत: पृथ्वी के घने वायुमंडल में अतिवेग से घुसने पर इनके द्रव्य में आग उत्पन्न हो जाती है और ये जल जाती हैं। इनकी द्रव्यमात्रा अत्यल्प होती है। कभी कभी उल्काएँ जब पृथ्वी पर गिरती हैं तो बड़े बड़े गड्ढ़े बना देती हैं। यदि हमारा वायुमंडल हमारी रक्षा न करे, तो उल्कापात से पृथ्वी तथा हमारी बहुत हानि हो (देखें उल्का)।
तारे[संपादित करें]
ये गरम गैसों से स्वयंप्रकाशित खगोलीय पिंड हैं, जो अपने द्रव्य को निजी गुरुत्वाकर्षण से संबद्ध रखते हैं। तारों के समूह एक विशेष आकृति धारण कर लेते हैं, इन्हें तारामंडल (constellations) कहते हैं। क्रांतिवृत्त के क्षेत्र के तारामंडलों को राशि कहते हैं, जो मेष, वृष, मिथुन आदि 12 हैं। सर्पधर (Ophiuchus) का कुछ भाग वृश्चिक तथा धनु राशियों के बीच में है। क्रांतिवृत्त तथा खगोलीय ध्रुव के बीच 21 तथा सर्पधर के शेष भाग और क्रांतिवृत्त तथा दक्षिणी खगोलीय ध्रुव के बीच 47 तारामंडल हैं। अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में इनके कुछ नाम ग्रीक पुराणकथाओं पर आधारित हैं तथा कुछ के नाम अरबी के हैं। नक्षत्रों के अश्विनी, भरणी, मृगशिरा आदि के भारतीय नाम भी पुराणकथाओं से संबद्ध हैं। राशियों में तारें की चमक के क्रम को बताने के लिये ग्रीक वर्णमाला का प्रयोग किया जाता है। जिस तारामंडल में तारों की संख्या वर्णमाला के अक्षरों से अधिक होती है, उनकी चमक के क्रम को अंकों द्वारा भी व्यक्त किया जाता है। प्रत्येक कांतिमान (magnitude) अपने अगले कांतिमान से 2.5 गुना अधिक चमकीला होता है। कांतिमान जितना कम होगा उतना ही तारों की सापेक्ष चमक 2.5 गुणा बढ़ जाएगी। इस प्रकार 1 से 6 तक कांतिमान के तारों की चमक का अनुपात 100 : 40 : 16 : 6.3 : 2.5 : 1 होगा। तारों के रंग से उनके ताप का ज्ञान होता है। बिना यंत्र के देखने से भी रंग का पता चल जाता है, किंतु सूक्ष्म ज्ञान के लिये रंगप्रभावी (colour sensitive) लेप (emulsion) वाली फोटोग्राफी की प्लेटों, फिल्मों तथा वर्णक्रमदर्शी फोटोग्राफी का प्रयोग किया जाता है। केवल आँख से दृश्य तारों की संख्या लगभग 6,500 है। इनमें लगभग 20 तारे 1 से 1.5 कांतिमान के लगभग, 50 तारे द्वितीय, 150 तारे तृतीय, 500 तारे चतुर्थ, 1,500 तारे पंचम तथा शेष तारे छठे कांतिमान के हैं। केवल आँख से, छठे कांतिमान से कम चमकीले तारे नहीं देखे जा सकते। 200 इंच व्यास के दूरदर्शी की सहायता से 23वें कांतिमान तक के तारे देखे जा सकते हैं। अब तक बड़े दूरदर्शियों द्वारा देखे गए हमारी आकाशगंगा के तारों की संख्या 1011 है। तारों की गतियों को दो भागों में बाँट देते हैं। एक तो वह, जिससे हमारे देखने की दिशा में आगे पीछे हटते हैं, दूसरी वह, जिससे तारे अतिदूरवर्ती तारों के सापेक्ष किसी दिशा में हटते दिखाई देते हैं। प्रथम को त्रिज्यावेग (radial velocity) तथा द्वितीय को निजी गति (proper motion) कहते हैं। दोनों वेगों का लब्धवेग तारा का वास्तविक वेग होता है। त्रिज्यावेग को वर्णक्रम की लाल रेखाओं के विचलन से डॉपलर के नियम द्वारा जाना जाता है, तथा निजी गति को कुछ वर्षों के अंतराल से लिए गए फोटोग्राफों द्वारा। तारों की निजी गति बहुत कम होती है। ज्योतिषी बर्नार्ड ने सबसे अधिक निजी गतिवाले तारे की वार्षिक निजी गति 10.3 ज्ञात की है। तारों की दूरियाँ नापने के लिये वार्षिक लंबन का प्रयोग किया जाता है। पृथ्वी की कक्षा का व्यास यदि आधार मान लें और शीर्षबिंदु पर तारे को मानें तो शीर्षबिंदु पर बना कोण द्विगुण वार्षिक लंबन होगा। इसके लिये एक तारे के, छ: महीने के अंतर पर, दो वेध लेने पड़ते हैं। किसी भी तारे का वार्षिक लंबन 1.00 से अधिक नहीं। जिस तारे का लंबन 1.00 हो वह हमसे पृथ्वी की कक्षा के अर्धव्यास के 2,06,265 गुना दूरी पर होता है। इस दूरी को एक पारसेक कहते हैं। तारों की दूनियाँ इतनी अधिक हैं कि उनके लिये पारसेक इकाई का काम देता है। तारों की दूरियाँ नापने के लिये प्रकाशवर्ष भी इकाई के रूप में प्रयुक्त होता है। प्रकशवर्ष वह दूरी है जिसे प्रकाश अपनी गति (1,86,000 मील प्रति सेकेंड) से एक वर्ष में तय करता है। यह 58,60,00,00,00,000 मील है तथा पारसेक का 0.307 है। अति समीप के नक्षत्रों का वार्षिक लंबन सूर्य के सापेक्ष निजी गति के ज्ञान द्वारा, युग्म तारों का गतिशास्त्र द्वारा तथा शेष का वर्णक्रमदर्शी विधि द्वारा ज्ञात किया जाता है। तारों के आकार के अधार पर उनके अतिदानवाकार (supergiant), दनवाकार (giant), सामान्यक्रम (main sequence) तथा वामनाकार (dwarf) भेद किए जाते हैं। इनका आकार उत्तरोत्तर छोटा होता जाता है। नवतारा (Nova) नवजात तारा होता है। वस्तुत: यह पहले से विद्यमान होता है, जिसमें विस्फोट हो चुका होता है। नवतारा की विशेषता यह है कि एकाएक अति प्रकाशित होकर विस्फुटित हो जाता है। कुछ तारों का प्रकाश नियत क्रम से बढ़ता घटता रहता है। इन्हें चल तारे कहते हैं। इनमें सिफियस चतुर्थ (d-cepheus) तथा आर आर लाइरा क्रम के तारे महत्वपूर्ण हैं। सिफियस चतुर्थ की श्रेणी के तारों को सिफीड कहते हैं। इनमें प्रकाश के उतार चढ़ाव का उनके काल से निश्चित संबंध (period luminosity relation) रहता है। जहाँ ऐसे तारे पाए जाते हैं यहाँ इस संबंध से तारापुंज की दूरी ज्ञात करना सरल होता है। आर आर लाइरा तारे प्राय: समान ऊँचाई पर रहते हैं। इनसे आकाशगंगा प्रणाली की दूरी ज्ञात करने में सहायता मिली है। नक्षत्रों के तल (surface) का ताप ज्ञात करने के लिये ज्योतिर्मिति (फोटोमेट्री) द्वारा वर्णज्ञान प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार लाल रंग के तारों के तल का ताप 2,000o-3,000o केo, नारंगी रंग के तारों का 3,000o-5000o केo और नीले रंग के तारों का 12,000o-20,000o-30,000o केo अथवा और ऊपर होता है। वस्तुत: रंगों का ठीक ज्ञान वर्णक्रमदर्शी (spectroscopic) विधि से होता है। इसीलिये ताप के लिये वर्णक्रमदर्शी के आधार पर तारों के भेद को अंग्रेजी वर्णमाला के बड़े अक्षरों से व्यक्त करते हैं। इस प्रकार तारों के वर्णदर्शी क्रम से ओ, बी, ए, एफ, जी, के एम, आर, एन, एस, भेद किए जाते हैं। इनके उपभेदों को व्यक्त करने के लिये अंग्रेजी वर्णमाला के ए से इ तक के लघु अक्षरों, अथवा शून्य से 9 तक के अंकों, का प्रयोग करते हैं। कुछ तारे जोड़ों (doubles) में होते हैं। इनमें साथी तारे पर सामान्य गुरुत्वाकर्षण नियम का प्रयोग करके उसके अकार, द्रव्यमात्रा आदि का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी वामनाकार तारे की द्रव्यमात्रा सूर्य की द्रव्यमात्रा के 0.1 से कम नहीं पाई गई। सूर्य की द्रव्यमात्रा से दसगुनी द्रव्यमात्रा वाले दानवाकार तारे भी इने गिने ही हैं। शेष की द्रव्यमात्रा इन दो सीमाओं के भीतर रहती है। तारों का घनत्व आयतन का व्युत्क्रमानुपाती होता है। इसी कारण दानवाकार तारों का घनत्व कम होता है। ज्येष्ठा तारे का घनत्व, जिसका व्यास सूर्य के व्यास का 480 गुना है और जिसकी द्रव्यमात्रा सूर्य के 20 गुने से अधिक नहीं है, साधारण वायु के 0.0001 के बराबर है। औसत तारों के मूल तत्वों में 70% हाइड्रोजन, 28% हीलियम, 1.5% कार्बन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा नियोन और .5% लौह वर्ग के भारी तत्व होते हैं। तारों के केंद्र की भीषण गर्मी से हाइड्रोजन के अणु हीलियम के अणुओं में परिवर्तित होते रहते हैं। इस आणविक प्रतिक्रिया में कुछ द्रव्यमात्रा ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है, जिससे तारों को असीम ऊर्जा प्राप्त होती रहती है। इसका ये प्रकाश के रूप में वितरण करते रहते हैं। इसी प्रक्रिया के आधार पर तारों की आयु का निर्णय किया जाता है। अत्यधिक प्रकाशमान तारों की औसत आयु 106 वर्ष, सामान्य क्रम के तारों की 1010 से लेकर 1013 वर्ष तक की होती है।
हमारी आकाशगंगा[संपादित करें]
यह कृष्णपक्ष की किसी रात्रि में उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हुई, धुँधले चमकीले नक्षत्रों की एक चौड़ी मेखला सी दिखलाई देती है। आकाशगंगा का पूर्वार्ध हंस (Cygnus), धनु (Sagittarius) में से होता हुआ करीना (Carina) तक फैला है और दूसरे अर्धांश की अपेक्षा, जो हंस, मृगशिरा (Orion) तथा करीना या नौतल तक फैला है, अत्यधिक चमकीला है। आकाशगंगा धनु के समीप अधिकतम चौड़ी तथा अधिकतम चमकीली है।
आकाशगंगा की मेखला के बीच से खगोल का जो बृहद्वृत्त जाता है उसे आकाशगंगीय विषुद्वृत्त कहते हैं। ऐक्विला, अथवा गरुड़, नामक तारामंडल के समीप खगोलीय विषुवद्वृत्त से लगभग 62o का कोण बनाता है। इसी बिंदु को हम आकाशगंगीय नियामकों का मूल बिंदु मानते हैं (देखें - आकाशगंगा)।
आकृति[संपादित करें]
हमारी आकाशगंगा सर्पिल (spiral) आकार की है। इसका नाभिक (nucleus) सूर्य से लगभग 2,700 प्रकाशवर्ष की दूरी पर धनु राशि में स्थित है। इसके आकाशगंगीय नियामक, भोगांक 328o तथा विक्षेप 0o अथवा - 2o, हैं। सूर्य उसकी बाहरी भुजा में है। इसके विषुवद्वृत्त का व्यास लगभग 10,00,000 प्रकाशवर्ष है। इसके केंद्रीय भाग में तारों की संख्या बहुत अधिक है। ज्यों ज्यों केंद्र से दूर हटते जाते हैं, तारों की संख्या कम होती जाती है। आकाशगंगा में लगभग 1011 तारे होंगे। इसकी द्रव्यमात्रा सूर्य की द्रव्यमात्रा की 1011 है। अतिशक्तिशाली दूरदर्शी से देखने पर बहुत से खगोलीय पदार्थ, पर्याप्त भाग में, चमकदार छोटे छोटे प्रकाशकणों से प्रकाशित दिखलाई देते हैं। इनमें से कुछ हमारी आकाशगंगा की तरह स्वयं विश्वद्वीप हैं। इसलिये इनका अध्ययन करना भी आवश्यक है। इन पदार्थों को हम इन भागों मे बाँट सकते हैं : नीहारिकाएँ, तारागुच्छ, तारामेघ तथा आकाशगंगाएँ। नीहारिकाएँ गैस से बने मेघ होती हैं, जिनके अणु पास के किसी बहुत उष्ण तारे के प्रखर प्रकाश के कारण आयनीकृत (ionised) होकर चमकने लगते हैं। ये प्रकाशित नीहारिकाएँ कहलाती हैं, जैसे मृगशिरा की नीहारिका। जिन गैस मेघों को किसी उष्ण नक्षत्र की ऊर्जा नहीं मिलती उनके अणु प्रकाशित नहीं हो पाते और वे अन्य तारों के प्रकाश के अवरोधक हो जाते हैं। पास के प्रकाशित भाग की अपेक्षा वे भाग अंधकारपूर्ण होते हैं। ऐसी काली आकृति को काली नीहारिका कहते हैं, जैसे अश्वसिर (Horse head) नीहारिक। प्रारंभ में नीहारिका शब्द का अर्थ अस्पष्ट था तथा बड़े दूरदर्शी से किसी भी धुँधले, या अधिक प्रकाशित क्षेत्र, को नीहारिका कह देते थे, जैसे देवयानी (Andromeda) नीहारिका। किंतु वह नीहारीका न होकर स्वयं आकाशगंगा है।
तारागुच्छ[संपादित करें]
कुछ तारों के समूह यंत्र बिना देखने पर प्रकाश के धब्बे से प्रतीत होते हैं, जिनसे कुछ छोटे तारे तथा एकाध चमकीला तारा दिखलाई पड़ता है। दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इनमें सैकड़ों तारे तथा एक दो नीहारिका जैसे पदार्थ भी दिखलाई देते हैं, जैसे कृत्तिका तारागुच्छ। तारागुच्छ के तारे प्राय: एक सी निजी गति से चलते दिखलाई देते हैं। तारागुच्छ दो प्रकार के होते हैं : आकाशगंगीय तारागुच्छ तथा गोलीय (globular) तारागुच्छ। कृत्तिका तारागुच्छ आकाशगंगीय तारागुच्छ है तथा बिना यंत्र के दिखलाई पड़ जाता है। एक आकाशगंगीय तारागुच्छ में कुछ सौ से लेकर कुछ हजार तक चमकीले तारे दिखलाई पड़ जाते हैं। आकाशगंगीय तारागुच्छ आकाशगंगा के धरातल में या उसके पास रहते हैं। चमकीले तारागुच्छ आकाशगंगा के धरातल से 100 से लेकर 1,000 प्रकाशवर्षों तक की दूरी पर स्थित हैं, किंतु अधिकांश 1,000 से 15,000 प्रकाशवर्षों की दूरी पर स्थित हैं। गोलीय (globular) तारागुच्छ आकाशगंगा के धरातल से दूर होते हैं। निकटतम गोलीय तारागुच्छ 20,000 प्रकाशवर्ष की दूरी पर होगा। इनमें हजारों तारे होते हैं, जो गोल के केंद्र के पास लगभग इस प्रकार इकट्ठे रहते हैं कि इन्हें बड़े दूरदर्शी से देखने पर भी उनकी आकृति स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ती। गोलीय तारागुच्छ की आकृति लगभग गोलाकार रहती है, जिसका व्यास लगभग 100 प्रकाशवर्ष होता है। इनका घना केंद्रीय भाग 5 प्रकाशवर्षों के लगभग होता है। (देखें - तारागुच्छ)।
तारामेघ[संपादित करें]
खगोल में कहीं कहीं चमकीले भाग मेघाकार प्रतीत होते हैं। बड़े दूरदर्शी से देखने पर इनमें असंख्य तारे दिखलाई पड़ते हैं। इनमें से कुछ आकाशगंगाएँ हैं। दो तारामेघ प्रसिद्ध हैं। बड़ा मेगलानिक तारामेघ तथा छोटा मेगलानिक। मेघ वस्तुत: आकाशगंगाएँ हैं, जो हमारी अपनी आकाशगंगा के निकटतम हैं। अपनी आकाशगंगा के अध्ययन से हमें अन्य आकाशगंगाओं का पता चला है एवं हमारी कुछ गलत धारणाएँ भी दूर हुई हैं। प्रत्येक नीहारिका आकाशगंगा नहीं है, यद्यपि कुछ आकाशगंगाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें हम नीहारिका समझे बैठे थे।
आकाशगंगाएँ कई प्रकार की होती है : सर्पिल, दीर्घवृत्ताकार तथा अनियमित। देवयानी (Andromeda) आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा की ही भाँति सर्पिल आकार की है। आकाशगंगा के अध्ययन से हमें विश्व की सीमा तथा उसकी उत्पत्ति एवं विकास के ज्ञान में सहायता मिलती है। हमारे बड़े से बड़े दूरदर्शक भी विश्व की अंतिम सीमा तक नहीं पहुँच सके हैं, तथापि आकाशगंगा के त्रिज्यावेगों के अध्ययन से हमने इतना जान लिया है कि अभी विश्व का विस्तार हो रहा है। यह लेमित्रे तथा एडिंगटन का मत है। इसी सिद्धांत के आधार पर अनुमान है कि विश्व की उत्पत्ति कदाचित् 10 वर्ष पूर्व हुई होगी।
हमारा ज्योतिष का वर्तमान ज्ञान भूतल पर लगे यंत्रों से प्राप्त हुआ है। इनकी अपनी सीमा है। इसीलिये हमारा ज्ञान भी सीमित है। पिछले कुछ वर्षों से विज्ञान में नए नए प्रयोग हो रहे हैं। गुब्बारों पर दूरदर्शियों को बहुत ऊँचा भेजने का प्रयास किया जा रहा है। राँकेट तथा कृत्रिम उपग्रह पृथ्वी के वायुमंडल के अज्ञात तत्वों तथा सौर परिवार के सूक्ष्म पदार्थों के अध्ययन का साधन बन रहे हैं। बड़े बड़े रेडियों दूरदर्शी तथा राडार यंत्र ज्योतिष को नई दिशा दिखला रहे हैं। इससे यह आशा की जा रही है कि हमें निकट भविष्य में खगोल के बहुत से नवीन रहस्यों का ज्ञान प्राप्त हो सकेगा।
फलित ज्योतिष
फलित ज्योतिष उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखनेवाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का भी बोध होता है, तथापि साधारण लोग ज्योतिष विद्या से फलित विद्या का अर्थ ही लेते हैं।
ग्रहों तथा तारों के रंग भिन्न-भिन्न प्रकार के दिखलाई पड़ते हैं, अतएव उनसे निकलनेवाली किरणों के भी भिन्न भिन्न प्रभाव हैं। इन्हीं किरणों के प्रभाव का भारत, बैबीलोनिया, खल्डिया, यूनान, मिस्र तथा चीन आदि देशों के विद्वानों ने प्राचीन काल से अध्ययन करके ग्रहों तथा तारों का स्वभाव ज्ञात किया। पृथ्वी सौर मंडल का एक ग्रह है। अतएव इसपर तथा इसके निवासियों पर मुख्यतया सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों और चंद्रमा का ही विशेष प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी विशेष कक्षा में चलती है जिसे क्रांतिवृत्त कहते हैं। पृथ्वी फलित ज्योतिष उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखनेवाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का निवासियों को सूर्य इसी में चलता दिखलाई पड़ता है। इस कक्षा के इर्द गिर्द कुछ तारामंडल हैं, जिन्हें राशियाँ कहते हैं। इनकी संख्या है। मेष राशि का प्रारंभ विषुवत् तथा क्रांतिवृत्त के संपातबिंदु से होता है। अयन की गति के कारण यह बिंदु स्थिर नहीं है। पाश्चात्य ज्योतिष में विषुवत् तथा क्रातिवृत्त के वर्तमान संपात को आरंभबिंदु मानकर, 30-30 अंश की 12 राशियों की कल्पना की जाती है। भारतीय ज्योतिष में सूर्यसिद्धांत आदि ग्रंथों से आनेवाले संपात बिंदु ही मेष आदि की गणना की जाती है। इस प्रकार पाश्चात्य गणनाप्रणाली तथा भारतीय गणनाप्रणाली में लगभग 23 अंशों का अंतर पड़ जाता है। भारतीय प्रणाली निरयण प्रणाली है। फलित के विद्वानों का मत है कि इससे फलित में अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि इस विद्या के लिये विभिन्न देशों के विद्वानों ने ग्रहों तथा तारों के प्रभावों का अध्ययन अपनी अपनी गणनाप्रणाली से किया है। भारत में 12 राशियों के 27 विभाग किए गए हैं, जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। ये हैं अश्विनी, भरणी आदि। फल के विचार के लिये चंद्रमा के नक्षत्र का विशेष उपयोग किया जाता है।
परिचय[संपादित करें]
ज्योतिषशास्त्र या एस्ट्रोलॉजी (ग्रीक भाषा ἄστρον के शब्द एस्ट्रोन, यानि "तारा समूह" -λογία और -लॉजिया (-logia), यानि "अध्धयन" से लिया गया है). यह प्रणालियों, प्रथाओं (tradition) और मतों (belief) का वो समूह है जिसके ज़रिये आकाशीय पिंडो (celestial bodies) की तुलनात्मक स्थिति और अन्य सम्बंधित विवरणों के आधार पर व्यक्तित्व, मनुष्य की ज़िन्दगी से जुड़े मामलों और अन्य सांसारिक विषयों को समझकर, उनकी व्याख्या की जाती है और इस सन्दर्भ में सूचनाएं संगठित की जाती हैं। ज्योतिष जाननेवाले कोज्योतिषी (astrologer) या एक भविष्यवक्ता कहा जाता है।'तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. (3rd millennium BC).[1][2] में इसके प्राचीनतम अभिलिखित लेखों से अब तक, ज्योतिष के सिद्धांतों के आधार पर कई प्रथाओं और अनुप्रयोगों के निष्पादन हुआ है। संस्कृति, शुरूआती खगोल विज्ञान और अन्य विद्याओं को आकार देने में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आधुनिक युग (modern era) से पहले ज्योतिष और खगोल विज्ञान (Astrology and astronomy) अक्सर अविभेद्य माने जाते थे। भविष्य के बारे में जानना और दैवीय ज्ञान की प्राप्ति, खगोलीय अवलोकन के प्राथमिक प्रेरकों में से एक हैं। पुनर्जागरण से लेकर १८ वीं सदी के अंत के बाद से खगोल विज्ञान का धीरे धीरे विच्छेद होना शुरू हुआ। फलतः, खगोल विज्ञान ने खगोलीय वस्तुओं के वैज्ञानिक अध्ययन और एक ऐसे सिद्धांत के रूप में अपनी एक पहचान बनाई जिसका उसकी ज्योतिषीय समझ से कुछ लेना देना नहीं था।
ज्योतिषों का विश्वास है की खगोलीय पिंडों की चाल और उनकी स्थिति या तो पृथ्वी को सीधे तरीके से प्रभावित करती है या फिर किसी प्रकार से मानवीय पैमाने पर या मानव द्वारा अनुभव की जाने वाली घटनाओं से सम्बद्ध होती है।[3] आधुनिक ज्योतिषियों द्वारा ज्योतिष को एक प्रतीकात्मक भाषा (symbolic language)[4][5][6], एक कला के रूप में या भविष्यकथन (divination),[7][8] के रूप में परिभाषित किया गया है, जबकि बहुत से वैज्ञानिकों ने इसे एक छद्म विज्ञान (pseudoscience) या अंधविश्वास (superstition) का नाम दिया है।[9][10] परिभाषाओं में अन्तर के बावजूद, ज्योतिष विद्या की एक सामान्य धारणा यह है की खगोलीय पिण्ड अपने क्रम स्थान से भूत और वर्तमान की घटनाओं और भविष्वाणी (prediction) को समझने में मदद कर सकते हैं। एक मतदान में, ३१% अमिरिकियों ने ज्योतिष पर अपना विश्वास प्रकट किया और एक अन्य अध्ययन के अनुसार, ३९% ने उसे वैज्ञानिक माना है।[11][12][13][14]
वैज्ञानिक आधार[संपादित करें]
ज्योतिष के आधार पर शुभाशुभ फल ग्रहनक्षत्रों की स्थितिविशेष से बतलाया जाता है। इसके लिये हमें सूत्रों से गणित द्वारा ग्रह तथा तारों की स्थिति ज्ञात करनी पड़ती है, अथवा पंचांगों, या नाविक पंचागों, से उसे ज्ञात किया जाता है। ग्रह तथा नक्षत्रों की स्थिति प्रति क्षण परिवर्तनशील है, अतएव प्रति क्षण में होनेवाली घटनाओं पर ग्रह तथा नक्षत्रों का प्रभाव भी विभिन्न प्रकार का पड़ता है। वास्तविक ग्रहस्थिति ज्ञात करने के लिए गणित ज्योतिष ही हमारा सहायक है। यह फलित ज्योतिष के लिये वैज्ञानिक आधार बन जाता है।
कुंडली[संपादित करें]
कुंडली वह चक्र है, जिसके द्वारा किसी इष्ट काल में राशिचक्र की स्थिति का ज्ञान होता है। राशिचक्र क्रांतिचक्र से संबद्ध है, जिसकी स्थिति अक्षांशों की भिन्नता के कारण विभिन्न देशों में एक सी नहीं है। अतएव राशिचक्र की स्थिति जानने के लिये स्थानीय समय तथा अपने स्थान में होनेवाले राशियों के उदय की स्थिति (स्वोदय) का ज्ञान आवश्यक है। हमारी घड़ियाँ किसी एक निश्चित याम्योत्तर के मध्यम सूर्य के समय को बतलाती है। इससे सारणियों की, जो पंचागों में दी रहती हैं, सहायता से हमें स्थानीय स्पष्टकाल ज्ञात करना होता है। स्थानीय स्पष्टकाल को इष्टकाल कहते हैं। इष्टकाल में जो राशि पूर्व क्षितिज में होती है उसे लग्न कहते हैं। तात्कालिक स्पष्ट सूर्य के ज्ञान से एवं स्थानीय राशियों के उदयकाल के ज्ञान से लग्न जाना जाता है। इस प्रकार राशिचक्र की स्थिति ज्ञात हो जाती है। भारतीय प्रणाली में लग्न भी निरयण लिया जाता है। पाश्चात्य प्रणाली में लग्न सायन लिया जाता है। इसके अतिरिक्त वे लोग राशिचक्र शिरोबिंदु (दशम लग्न) को भी ज्ञात करते हैं। भारतीय प्रणाली में लग्न जिस राशि में होता है उसे ऊपर की ओर लिखकर शेष राशियों को वामावर्त से लिख देते हैं। लग्न को प्रथम भाव तथा उसके बाद की राशि को दूसरे भाव इत्यादि के रूप में कल्पित करते हैं1 भावों की संख्या उनकी कुंडली में स्थिति से ज्ञात होती है। राशियों का अंकों द्वारा तथा ग्रहों को उनके आद्यक्षरों से व्यक्त कर देते हैं। इस प्रकर का राशिचक्र कुंडली कहलाता है। भारतीय पद्धति में जो सात ग्रह माने जाते हैं, वे हैं सूर्य, चंद्र, मंगल आदि। इसके अतिरिक्त दो तमो ग्रह भी हैं, जिन्हें राहु तथा केतु कहते हैं। राहु को सदा क्रांतिवृत्त तथा चंद्रकक्षा के आरोहपात पर तथा केतु का अवरोहपात पर स्थित मानते हैं। ये जिस भाव, या जिस भाव के स्वामी, के साथ स्थित हों उनके अनुसार इनका फल बदल जाता है। स्वभावत: तमोग्रह होने के कारण इनका फल अशुभ होता है। पाश्चात्य प्रणाली में (1) मेष, (2) वृष, (3) मिथुन, (4) कर्क, (5) सिंह, (6) कन्या, (7) तुला, (8) वृश्चिक, (9) धनु, (10) मकर, (11) कुंभ तथा (12) मीन राशियों के लिये क्रमश: निम्नलिखित चिह्न हैं :
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11. 12
(1) बुध, (2) शुक्र, (3) पृथ्वी, (4) मंगल, (5) गुरु, (6) शनि, (7) वारुणी, (8) वरुण, तथा (9) यम ग्रहों के लिये क्रमश: निम्नलिखित चिह्न :
1 2 3 4 5 6 7 8 9
तथा सूर्य के लिये और चंद्रमा के लिये प्रयुक्त होते हैं।
भावों की स्थिति अंकों से व्यक्त की जाती है। स्पष्ट लग्न को पूर्वबिंदु (वृत्त को आधा करनेवाली रेखा के बाएँ छोर पर) लिखकर, वहाँ से वृत्त चतुर्थांश के तुल्य तीन भाग करके भावों को लिखते हैं। ग्रह जिन राशियों में हो उन राशियों में लिख देते हैं। इस प्रकार कुंडली बन जाती है, जिसे अंग्रेजी में हॉरोस्कोप (horoscope) कहते हैं। यूरोप में, भारतीय सात ग्रहों के अतिरिक्त, वारुणी, वरुण तथा यम के प्रभाव का भी अध्ययन करते हैं।
फल का ज्ञान
फल के ज्ञान के लिये राशियों के स्वभाव का अध्ययन करना पड़ता है। कुंडली के विभिन्न भावों से हमारे जीवन से संबंध रखनेवाली विभिन्न बातों का पता चलता है, जैसे प्रथम भाव से शरीर संबंधी, दूसरे भाव से धन संबंधी आदि।[कृपया उद्धरण जोड़ें] जिस भाव में जो राशि हो उसका स्वामी उस भाव का स्वामी होता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] एक ग्रह राशिच्क्र पर विभिन्न प्रकार से किरणें फेंकता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] अतएव कुंडली में ग्रह की दृष्टि भी पूरी या कम मानी जाती है[किसके द्वारा?]। ग्रह जिस ग्रह स्थान पर अत्यधिक प्रभाव रखता है उसे उच्च तथा उससे सातवें भाव को उसका नीच कहते हैं। सूर्य के सान्निध्य से ग्रह हमें कभी कभी दिखाई नहीं पड़ते; तब वे अस्त हुए कहलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न स्थितियों में ग्रहों के प्रभाव के अनुसार उन्हें बाल, युवा तथा वृद्ध कहते है। ग्रहों के अन्य ग्रह स्वभाव की सदृशता अथवा विरोध के कारण मित्र अथवा शत्रु होते हैं।[कृपया उद्धरण जोड़ें] अतएव फलित के लिये ग्रहों के बलाबल को जाना जाता है। जो ग्रह युवा, अपने स्थान अथवा उच्च में स्थित हो तथा अपने मित्रों से युत अथवा दृष्ट हो, उसका प्रभाव बहुत होता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]इसी प्रकार वह भाव जो अपने स्वामी से युत अथवा दृष्ट हो और जिसमें शुभ ग्रह हों, पूर्ण फल देता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इस प्रकार ग्रहों के बलाबल, उनकी स्थिति तथा उनपर अन्य ग्रहों का भी विचार किया जाता है। इसके साथ परिस्थितियों तथा मनुष्य की दशा का भी विचार किया जाता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इन्हीं सब कारणों से फलित बताना अति कठिन कार्य है। जो लोग गणित ज्योतिष के ज्ञान के बिना फल बताते हैं, वे ठीक नहीं बता सकते।[कृपया उद्धरण जोड़ें] चूँकि अधिकांश ज्योतिषी ऐसे ही पाए जाते हैं, इसलिये कुछ लोगों को इस विद्या की वैज्ञानिकता पर संदेह होने लगा है। हमारे जीवन के ऊपर सबसे अधिक सूर्य तथा चंद्रमा का प्रभाव पड़ता है[कृपया उद्धरण जोड़ें], अतएव पाश्चात्य देशों में सूर्यस्थित राशि (सूर्यकुंडली) तथा चंद्रस्थित राशि (चंद्रकुंडली) को विशेष महत्व देते हैं। सूर्य हृदय की स्थिर प्रवृत्तियों का तथा चंद्रमा प्रतिक्षण चल मानसिक प्रवृत्तियों का बोधक है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] अतएव भारत में चंद्रकुंडली को महत्व दिया जाता है। पाश्चात्य देशों में भी अब लोग इसी विचारधारा को प्रश्रय दे रहे हैं। चूँकि सूर्य अथवा चंद्र एक राशि में बहुत समय तक रहते हैं, अत: इनकी कुंडलियों से विभिन्न व्यक्तियों पर होनेवाले प्रभाव का ठीक अध्ययन नहीं किया जा सकता। स्पष्ट लग्न शीघ्र बदलता रहता है, अतएव लग्नकुंडली को व्यक्ति की वास्तविक जन्मकुंडली माना जाता है। सूक्ष्म फल के लिये होरा, द्रेष्काण, नवांश कुंडलियों का उपयोग किया जाता है।
ग्रहदशा[संपादित करें]
ग्रहों का विशेष फल देने का समय तथा अवधि भी निश्चित है। चंद्रनक्षेत्र का व्यतीत तथा संपूर्ण भोग्यकाल ज्ञात होने से ग्रहदशा ज्ञात हो जाती है। ग्रह अपने शुभाशुभ प्रभाव विशेष रूप से अपनी दशा में ही डालते हैं। किसी ग्रह की दशा में अन्य ग्रह भी अपना प्रभाव दिखलाते हैं। इसे उन ग्रहों की अंतर्दशा कहते हैं। इसी प्रकार ग्रहों की अंतर, प्रत्यंतर दशाएँ भी होती है। ग्रहों की पारस्परिक स्थिति से एक योग बन जाता है जिसका विशेष फल होता है। वह फल किस समय प्राप्त होगा, इसका निर्णय ग्रहों की दशा से ही किया जा सकता है। भारतीय प्रणाली में विंशोत्तरी महादशा का मुख्यतया प्रयोग होता है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य की आयु 120 वर्ष की मानकर ग्रहों का प्रभाव बताया जाता है।
शाखाएँ[संपादित करें]
फलित ज्योतिष की कई शाखाएँ हैं। पाश्चात्य ज्योतिष में इनकी संख्या छह है:
- (1) व्यक्तियों तथा वस्तुओं के जीवन संबंधी ज्योतिष
- (2) प्रश्न ज्योतिष,
- (3) राष्ट्र तथा विश्व संबंधी ज्योतिष,
- (4) वायुमंडल संबंधी ज्योतिष,
- (5) आयुर्वेद ज्योतिष तथा
- (6) ज्योतिषदर्शन।
भारतीय ज्योतिष में केवल जातक तथा संहितास दो शाखाएँ ही मुख्य हैं। पाश्चात्य ज्योतिष की (1), (2) तथा (3) शाखाओं का जातक में तथा शेष तीन का संहिता ज्योतिष में अंतर्भाव हो जाता है।
घटक
ग्रह[संपादित करें]
गृह | English Nameraju tripati | लिंmaleग | विम्शोतरी दशा (वर्ष)21 8 1986 |
---|---|---|---|
सूर्य | Sun | पुल्लिंग | 6 |
चंद्र | Moon | स्त्रीलिंग | 10 |
मंगल | Mars | पुल्लिंग | 7 |
बुध | Mercury | नपुंसक | 17 |
बृहस्पति | Jupiter | पुल्लिंग | 16 |
शुक्र | Venus | स्त्रीलिंग | 20 |
शनि | Saturn | पुल्लिंग | 19 |
राहु | Dragon’s Head | पुल्लिंग | 18 |
केतु | Dragon’s Tail | पुल्लिंग | 7 |
राहू एवं केतु वास्तविक गृह नहीं है इन्हे छायाग्रह मना गया है।
ग्रहों कि आपसी मित्रता-शत्रुता इस प्रकार है।
गृह | मित्र | शत्रु | सम |
सूर्य | चंद्र, मंगल, गुरु | शुक्र, शनि | बुध |
चंद्र | सूर्य, बुध | मंगल, गुरु, शुक्र, शनि | |
मंगल | सूर्य, चंद्र, गुरु | बुध | शुक्र, शनि |
बुध | सूर्य, शुक्र | चंद्र | मंगल, गुरु, शनि |
गुरु | सूर्य, चंद्र, मंगल | बुध, शुक्र | शनि |
शुक्र | बुध, शनि | सूर्य, चंद्र, मंगल | गुरु |
शनि | बुध, शुक्र | सूर्य, चंद्र | मंगल, गुरु |
राशि[संपादित करें]
राशि | English Name | स्वभाव | राशि स्वामी |
---|---|---|---|
मेष | Aries | चर | मंगल |
वृषभ | Taurus | स्थिर | शुक्र |
मिथुन | Gemini | दोस्वभाव | बुध |
कर्क | Cancer | चर | चंद्र |
सिंह | Leo | स्थिर | सूर्य |
कन्या | Virgo | दोस्वभाव | बुध |
तुला | Libra | चर | शुक्र |
वृश्चिक | Scorpio | स्थिर | मंगल |
धनु | Sagittarius | दोस्वभाव | गुरु |
मकर | Capricorn | चर | शनि |
कुम्भ | Aquarius | स्थिर | शनि |
मीन | Pisces | दोस्वभाव | गुरु |
यदि 360° को 12 से विभाजित किया जाए तो एक राशी 30° की होती है।
नक्षत्र[संपादित करें]
# | नक्षत्र | स्ताथी | नक्षत्र स्वामी | पद 1 | पद 2 | पद 3 | पद 4 |
---|---|---|---|---|---|---|---|
1 | अश्विनी | 0 - 13°20' मेष | केतु | चु | चे | चो | ला |
2 | भरिणी | 13°20' - 26°40' मेष | शुक्र | ली | लू | ले | पो |
3 | कृत्तिका | 26°40' मेष - 10°00' वृषभ | सूर्य | अ | ई | उ | ए |
4 | रोहिणी | 10°00' - 23°20' वृषभ | चंद्र | ओ | वा | वी | वु |
5 | म्रृगशीरा | 23°20' वृषभ - 6°40' मिथुन | मंगल | वे | वो | का | की |
6 | आर्द्रा | 6°40' - 20°00' मिथुन | राहू | कु | घ | ङ | छ |
7 | पुनर्वसु | 20°00' मिथुन- 3°20' कर्क | गुरु | के | को | हा | ही |
8 | पुष्य | 3°20' - 16°20' कर्क | शनि | हु | हे | हो | ड |
9 | आश्लेषा | 16°40' कर्क- 0°00' सिंह | बुध | डी | डू | डे | डो |
10 | मघा | 0°00' - 13°20' सिंह | केतु | मा | मी | मू | मे |
11 | पूर्वा फाल्गुनी | 13°20' - 26°40' सिंह | शुक्र | नो | टा | टी | टू |
12 | उत्तर फाल्गुनी | 26°40' सिंह- 10°00' कन्या | सूर्य | टे | टो | पा | पी |
13 | हस्त | 10°00' - 23°20' कन्या | चंद्र | पू | ष | ण | ठ |
14 | चित्रा | 23°20' कन्या- 6°40' तुला | मंगल | पे | पो | रा | री |
15 | स्वाति | 6°40' - 20°00 तुला | राहू | रू | रे | रो | ता |
16 | विशाखा | 20°00' तुला- 3°20' वृश्चिक | गुरु | ती | तू | ते | तो |
17 | अनुराधा | 3°20' - 16°40' वृश्चिक | शनि | ना | नी | नू | ने |
18 | ज्येष्ठा | 16°40' वृश्चिक - 0°00' धनु | बुध | नो | या | यी | यू |
19 | मूल | 0°00' - 13°20' धनु | केतु | ये | यो | भा | भी |
20 | पूर्वाषाढ़ा | 13°20' - 26°40' धनु | शुक्र | भू | धा | फा | ढा |
21 | उत्तराषाढ़ा | 26°40' धनु- 10°00' मकर | सूर्य | भे | भो | जा | जी |
22 | श्रवण | 10°00' - 23°20' मकर | चंद्र | खी | खू | खे | खो |
23 | धनिष्ठा | 23°20' मकर- 6°40' कुम्भ | मंगल | गा | गी | गु | गे |
24 | शतभिषा | 6°40' - 20°00' कुम्भ | राहू | गो | सा | सी | सू |
25 | पूर्वाभाद्रपदा | 20°00' कुम्भ - 3°20' मीन | गुरु | से | सो | दा | दी |
26 | उत्तराभाद्रपदा | 3°20' - 16°40' मीन | शनि | दू | थ | झ | ञ |
27 | रेवती | 16°40' - 30°00' मीन | बुध | दे | दो | च | ची |
यदि 360° को 27 से विभाजित किया जाए तो एक नक्षत्र 13°20'(तेरह डिग्री बीस मिनट) का होता है, अर्थात एक राशी मे सवा-दो (2.25) नक्षत्र होते है।
गहरा विश्वास[संपादित करें]
प्राचीन काल से ही ज्योतिष में गहरा विश्वास प्रचलित था, जो की हर्मेटिक (Hermetic) मैक्सिम के शब्दों "जैसा ऊपर, वैसा नीचे" के सार में भी समाहित है।टाइको ब्राहे ने ज्योतिष पर अपने अध्ययन में एक समान सारांश दिया है: "सस्पिसीएनडो देस्पिसीयो", ऊपर देखकर भी मैं निचे देखता हूँ".[15] हालांकि, यह सिद्धांत जिसके अनुसार स्वर्ग में घटित घटनाओं का प्रतिबिम्ब पृथ्वी पर भी अवलोकित होता है, दुनिया भर में बहुत सी ज्योतिष परम्पराओं का हिस्सा है, पश्चिम में ऐतिहासिक रूप से ज्योतिष के पीछे काम करने वाली क्रियावली पर ज्योतिषियों के बीच बहस होती आई है। इस पे यह विवाद भी है की आकाशीय पिंड क्या केवल चिन्ह मात्र हैं या यह घटनाओं की पूर्वसूचना हैं, या फिर वे वास्तव में किसी प्रकार की शक्ति या फिर तंत्र से वास्तविक घटनाओं का संचालन करते हैं।[तथ्य वांछित]
भले ही खगोलीय यांत्रिकी (celestial mechanics) और स्थलीय गतिकी (dynamics) के बीच सम्बन्ध सबसे पहले इसाक न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण (gravitation) के सार्वभौमिक सिद्धांत की खोज से सामने आया, लेकिन खगोलीय पिंडों का गुरुत्वाकर्षण ही उनके ज्योतिष प्रभाव को जन्म देता है यह बात किसी वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा नहीं कही गई, न ही किसी ज्योतिष ने इसका समर्थन किया।[तथ्य वांछित]
अधिकतर ज्योतिष परम्पराएं वास्तविक या अनुमानित आकाशीय पिंडों की सापेक्ष स्थिति और गति पर आधारित होती हैं या फिर किसी समय और स्थान पर हुई घटना में लिए गए या गणना में शामिल खगोलीय स्वरुप पर आधारित होते हैं। ये मुख्यतः हैं - ज्योतिष ग्रह (astrological planets), बौने ग्रह (dwarf planets), क्षुद्रग्रह (asteroids), तारें (star), चंद्र आसंधि (lunar node), अरबी भाग (Arabic parts) और काल्पनिक ग्रह (hypothetical planets). इस प्रकार की उल्लेखनीय आभासी स्थिति को उष्णकटिबंधीय (tropical) या तारामंडल (sidereal), एक ओर से बारह चिन्हों (signs) के राशिचक्र (zodiac) और दूसरी ओर से स्थानीय क्षितिज (horizon) (आरोही (ascendant)-अवरोही (descendant) अक्ष) और मध्य-आकाशीय (midheaven) - इमम कोएली (imum coeli) अक्ष के द्वारा परिभाषित किया गया है।
यह उत्तरवर्ती (स्थानीय) ढांचा विशिष्ट रूप से बारह ज्योतिष घरों (astrological houses) में विभाजित किया गया है। इसके अलावा, ये ज्योतिष के विभिन्न पहलु (astrological aspects) ज्यामितीय/कोणीय और विभिन्न खगोलीय पिंडों और कोणों के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है।
भविष्य की प्रवृतिओं और घटनाओं की भविष्यवाणी करने का ज्योतिष का दावा दो मुख्य विधियों पर आधारित है, पश्चिमी ज्योतिष में: ज्योतिष संबंधी पारगमन (astrological transit) और ज्योतिष सम्बन्धी प्रगमन (astrological progression).ज्योतिष सम्बन्धी पारगमन में ग्रहों की गति के आधार पर व्याख्या की जाती है क्योंकि अंतरिक्ष और कुंडली से होकर गुज़रते समय उनकी गति महत्वपूर्ण होती है। ज्योतिष प्रगमन में जन्म कुंडली तय पद्यतियों के अनुसार समय मे आगे की ओर बढती है। वैदिक ज्योतिष में निष्कर्ष पे पहुँचने के लिए ग्रह अवधियों पर ध्यान दिया गया है जबकि पारगमन का प्रयोग समय से जुड़ी महत्त्वपूर्ण घटनाओं में किया जाता है। अधिकांश पश्चिमी ज्योतिषियों ने भी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना छोड़ दिया है, उसके बदले वे सामान्य प्रवृत्तियों और घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से, वैदिक ज्योतिष, प्रवृत्तियों और घटनाओं दोनों की भविष्यवाणी करते हैं। संशईवादियों के अनुसार पश्चिमी ज्योतिषियों का ये तरीका प्रमाण योग्य अनुमान लगाने से बचाता है और उन्हें महत्वपूर्ण से स्वेच्छित और असंबंधित घटनाओं का अभिप्राय अपने सुविधानुसार बताने का सामर्थ्य देता है।[16]
अतीत में, ज्योतिष अक़्सर आकाशीय पिंडों के निकट अवलोकन और उनकी चाल पर आश्रित रहते थे। आधुनिक ज्योतिषी, खगोलविदों (astronomer) के दोवारा दिए हुए आंकडें जो की एक खगोलीय सारणी एफेमेरीडस (ephemerides) के रूप में होते हैं, जो खगोलीय पिंडों की समय के साथ बदलती राशि चक्र स्थिति को दर्शाती है।
परंपराएं[संपादित करें]
- इन्हें भी देखें: ज्योतिष परंपराओं, प्रकार और प्रणालियों की सूची (List of astrological traditions, types, and systems)
ज्योतिषियों की बहुत सारी परमपराएँ हैं, जिनमें से कुछ ज्योतिष सिद्धांतों और संस्कृतियों के प्रसारण के कारण एक सी विशेषता वाली होती हैं अन्य दूसरी परंपराओं का विकास विलगन में हुआ और उनके ज्योतिष सिद्धांत अलग हैं, हालांकि उनमें भी एक ही खगोलीय स्रोत से लिए जाने के कारण कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं।
वर्तमान परंपराएँ[संपादित करें]
आधुनिक ज्योतिषियों द्वारा जिन मुख्य परम्पराओं का इस्तेमाल किया जाता है, वो हैं:
- वैदिक ज्योतिष (Vedic astrology)
- पश्चिमी ज्योतिष (Western astrology)
- चीनी ज्योतिष (Chinese astrology)
वैदिक और पश्चिमी ज्योतिष समान वंश के हैं जैसे की ज्योतिष की कुण्डलीं प्रणाली (horoscopic systems), दोनों परम्पराओं में ध्यान एक ज्योतिष सारणी या कुंडली (horoscope) के निर्माण, खगोलीय तत्वों के प्रस्तुतीकरण और किसी घटना की जानकारी के लिए सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों की स्थिति का ज्ञान.हालांकि, वैदिक ज्योतिष, राशि चक्रों के चिन्हों को मूल नक्षत्रों (constellation) से मिलाकर नक्षत्र राशि चक्र (sidereal zodiac) का प्रयोग करती है, जबकि पश्चिमी ज्योतिष उष्णकटिबंधीय राशि चक्रों (tropical zodiac) का इस्तेमाल करते हैं। विशुओं के पूर्व निर्णय के कारण (precession of the equinoxes), सदियों बाद, पश्चिमी ज्योतिष के बारह राशि चिन्हों का उनके मौलिक नक्षत्रों की तरह आकाश के समान भाग से सम्बन्ध नहीं रहा.प्रव्हाव की दृष्टि से, पश्चिमी ज्योतिष में चिन्हों और नक्षत्रों के बीच सम्बन्ध टूट गया है, जबकि वैदिक ज्योतिष में अभी भी इसका सर्वोच्च महत्व है। दोनों सभ्यताओं के बीच अन्य मतभेदों में शामिल हैं- २७ (या २८) नक्षत्र (nakshatra) या चंद्र भवन के प्रयोग जिनका उपयोग भारत में वैदिक काल से किया जा रहा है और ग्रहों की अवधि की प्रणाली जिन्हें दशा (dashas) के नाम से जाना जाता है।
चीनी ज्योतिष में एक पूर्णतया विभिन् परंपरा का विकास हुआ है। इस में पश्चिमी और भारतीय ज्योतिष से विपरीत आकाश का विभाजन बारह राशि चक्र के स्थान पर आकाशीय भूमध्य रेखाओं द्वारा किया जाता है। चीनीयों ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की जिसमें हर चिन्ह दिन के बारह 'दोहरे घंटों ' और साल के बारह महीनो से सम्बद्ध माना जाता था। राशि चक्र का प्रत्येक चिन्ह अलग अलग साल पर शासन करता है और चीनी ब्रह्मांडिकी के पंच तत्व प्रणाली के साथ जुड़कर ६० (१२ x ५) वर्ष चक्र देता है। यहाँ यह शब्द, चीनी ज्योतिष सुविधा के लिए प्रयोग किया गया है, लेकिन कोरिया (Korea), जापान, वियतनाम, थाईलैंड और अन्य एशियाई देशों में ठीक इसी परंपरा के संस्करण विद्यमान हैं।
आधुनिक समय में, ये परम्पराएं एक दूसरे के अधिक संपर्क में आई हैं, ध्यान देने वाली बात ये है की भारतीय और चीनी ज्योतिष पश्चिम में प्रचारित हो रही है, जबकि पश्चिमी ज्योतिष की जानकारी अभी भी एशिया में सिमित है। पश्चिमी दुनिया में ज्योतिष विज्ञान में आधुनिक समय में काफ़ी विविधता आई है। नए आन्दोलन दिखाई दिए हैं जिसने अलग अलग दृष्टिकोणों पर ध्यान केंद्रित करते हुए पारंपरिक ज्योतिष को अस्वीकार कर दिया है, जैसे की मध्यबिन्दुओं पर ज्यादा ज़ोर देना, या फिर ज़्यादा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण .हाल ही में हुए कुछ पश्चिमी विकास:
- आधुनिक उष्णकटिबंधीय और नक्षत्र कुंडली ज्योतिष
- ब्रह्माण्ड जीवविज्ञान (Cosmobiology)
- मनोवैज्ञानिक ज्योतिष (Psychological astrology)
- जन्म चिन्ह ज्योतिष (Sun sign astrology)
- ज्योतिष का हैम्बर्ग स्कूल (Hamburg School of Astrology)
- वरुण ज्योतिष (Uranian astrology), हैम्बर्ग स्कूल का उपसमुच्चय
ऐतिहासिक परंपरा[संपादित करें]
अपने लंबे इतिहास के दौरान, ज्योतिष विज्ञान ने कई क्षेत्रों में शोहरत प्राप्त की और परिवर्तन के साथ-साथ इसमें विकास भी हुआ। ऐसी कई ज्योतिष परम्पराएं हैं जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है, मगर आज वो बहुत कम प्रयोग में आते हैं। ज्योतिषियों की उनमें अभी भी रुचि बरकरार है और वे उसे एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखते हैं। ज्योतिष के ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण परंपराओं में शामिल हैं:
- अरबी और फारसी ज्योतिष (Arab and Persian astrology) (मध्यकालीन मध्य पूर्व)
- बेबीलोन ज्योतिष (Babylonian astrology) (प्राचीन, मध्यपूर्व)
- मिस्र ज्योतिष (Egyptian astrology)
- हेलेनिस्टिक ज्योतिष (Hellenistic astrology) (शास्त्रीय पुरातनता)
- मायां ज्योतिष (Mayan astrology)
पश्चिमी, चीनी और भारतीय ज्योतिष के इतिहास (history of astrology) की चर्चा इतिहास के मुख्य लेखों में की गई है।
गुप्त परंपराएं[संपादित करें]
कई सूफ़ी या गुप्त परंपराओं को ज्योतिष से जोड़ा गया है। कुछ मामलों में, जैसे कब्बाला (Kabbalah) में, ज्योतिष के अपने पारंपरिक तत्वों को प्रतिभागियों द्वारा इक्कठा करके अंतर्भूत किया जाता है। अन्य मामलों में, जैसे की आगम भविष्यवाणी में, बहुत से ज्योतिषी ज्योतिष के अपने काम में परम्पराओं को सम्मिलित करते हैं। गुप्त परंपराएं में निम्न- लिखित चीज़ें शामिल हैं, लेकिन गुप्त परंपराएं इतने तक ही सीमित नहीं हैं:
- रसायन विद्या (Alchemy)
- हस्तरेखा-शास्त्र (Chiromancy)
- गूढ़ ज्योतिष (Kabbalistic astrology)
- चिकित्सा ज्योतिष (Medical astrology)
- संख्या विज्ञान (Numerology)
- रोसिक्रुसियन (Rosicrucian) या "रोज क्रॉस"
- टैरो द्वारा भविष्यकथन (Tarot divination)
इतिहास के अनुसार, पश्चिमी दुनिया (Western World) में रसायन विद्या विशेषत: समवर्गी था और ज्योतिष की पारंपरिक बाबिल-यूनानी शैली से मिला हुआ था; कई मायनों में ये मनोगत (occult) या गुप्त ज्ञान को खोजने में एक दूसरे के पूरक थे।[17] ज्योतिष ने रसायन विद्या की चार संस्थापित तत्वों (classical elements) की अवधारणा का प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक उपयोग किया है। परंपरागत रूप से, सौर-मंडल के सात ग्रोहों में से प्रत्येक का अपना प्रभुत्व क्षेत्र या अधिराज्य है और वो निश्चित धातु पर आधिपत्य रखता है।[18]
राशि चक्र[संपादित करें]
राशि चक्र, नक्षत्रों का एक घेरा या समूह है जिसके माध्यम से सूर्य, चंद्रमा और ग्रह आकाश में पारगमन करते हैं। ज्योतिषियों ने इन नक्षत्रों पर ध्यान दिया और उनको कुछ विशिष्ट महत्व दिया. समय के साथ-साथ उन्होंने बारहों नक्षत्रों की विशिष्टताओं को ध्यान में रखकर उस पर आधारित बारह राशि चिन्हों (signs) की एक प्रणाली बना ली. (मेष (Aries), वृषभ (Taurus), मिथुन (Gemini), कर्क (Cancer), सिंह (Leo), कन्या (Virgo), तुला (Libra), वृश्चिक (Scorpio), धनु (Sagittarius), मकर (Capricorn), कुंभ (Aquarius) और मीन (Pisces)). पश्चिमी और वैदिक राशि चक्रों का कुण्डलिनी ज्योतिष की परम्परा में एक ही मूल है, इसलिए दोनों एक दूसरे से बहुत से मायने में समान हैं। दूसरी ओर चीन में, राशि चक्र का अलग तरीके से विकास हुआ था। हालांकि चीनियों का भी एक बारह चिन्हों वाला तंत्र है (जानवरों के नाम पर आधारित), चीनी राशि चक्र शुद्ध पंचांग चक्र का हवाल देता है, इसमें पश्चिमी और भारतीय राशि चक्रों से जुड़ा हुआ कोई समकक्ष नक्षत्र नहीं है।
पश्चिमी ज्योतिषियों के एक बड़े हिस्से ने आकाश को ३० अंश के बारह बराबर खंडों में बाटने वाले उष्णकटिबंधीय राशि चक्र को अपने काम का आधार बनाया जिसकी शुरुआत मेष के पहले बिन्दु से होती है, जहाँ आकाशीय भूमध्य रेखा (celestial equator) और क्रांतिवृत्त (ecliptic) (आकाश के माध्यम से सूर्य के पथ), उत्तरी गोलार्द्ध के वलय विषुव (equinox) पर मिलते हैं। विशुओं के पुरस्सरण के कारण (precession of the equinoxes), पृथ्वी का अंतरिक्ष में घूर्णन करने का रास्ता धीरे धीरे बदलता है, इस प्रणाली में राशि चक्र चिन्ह का समान नाम वाले नक्षत्र (constellation) से कोई संबंध नहीं है, बल्कि वो महीनों और ऋतुओं के संरेखन में (सीध में) रहते हैं।
वैदिक ज्योतिष की परम्परा का पालन करने वाले और अल्प संख्या में यानि कुछ पश्चिमी ज्योतिषी समान नक्षत्र राशि चक्र उपयोग करते हैं। यह राशि चक्र उसी समान रूप से विभाजित क्रांतिमण्डल का प्रयोग करता है लेकिन राशि चिन्हों के समान नाम वाले विचाराधीन नक्षत्रों की स्थिति के लगभग संरेखन में रहता है। नक्षत्र राशि चक्र उष्णकटिबंधीय राशि चक्र से अयानाम्सा (ayanamsa) कही जाने वाली दूरी से बराबर दूरी से अलग है, जो की विशुओं के झुकाव के साथ-साथ आगे बढ़ता है। इसके अलावा, कुछ नक्षत्रज्ञाता (अर्थात् ज्योतिषी जो नक्षत्र तकनीक का प्रयोग करते हैं) वास्तविक, असमान राशिचक्रों के नक्षत्रों को अपने काम में इस्तेमाल करते हैं।
कुण्डलिनी ज्योतिष[संपादित करें]
ज्योतिष घरों और ग्रहों एवं चिन्हों के लिए बनाऐ गये शिल्प के नमूने को प्रर्दशित करने वाली
कुंडली ज्योतिष (Horoscopic astrology) प्रणाली, भूमध्य (Mediterranean) क्षेत्र और विशेष रूप से हेलेनिस्टिक मिस्र (Hellenistic Egypt) के आस-पास के क्षेत्र में दूसरी या पहली शताब्दी के शुरूआती दौर में विकसित हुई.[19] ये परम्परा समय के विशिष्ट क्षण पर स्वर्ग या कुंडली के द्वि- आयामी आरेख से सम्बद्ध है। यह चित्र विशेष नियमों और दिशा निर्देशों के आधार पर खगोलीय पिंडों के संरेखण में छिपे अर्थों को समझने के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। एक कुंडली कि गणना सामान्यतः एक व्यक्ति विशेष के जन्म के समय या फिर किसी उद्यम या घटना के शुरुआत में कि जाती है, क्यूंकि उस समय के आकाशीय सरेखण को उन विषयों की प्रकृति का निर्धारक माना जाता है जिनके बारे में हम जानना चाहते हैं। ज्योतिष के इस रूप का एक विशिष्ट लक्षण जो इसे दूसरों से अलग करता है वो है - परीक्षा के विशिष्ट क्षण, जिसे अन्यथा पधान के रूप में भी जाना जाता है। पर क्रांतिवृत्त (ecliptic) की पृष्ठभूमि के सामने, पूर्वी क्षितिज की बढ़ने वाली डिग्री की गणना.कुंडली का ज्योतिष दुनिया भर में फैले ज्योतिष का सर्वाधिक प्रभावशाली रूप है, ख़ास तौर पर अफ्रीका, भारत, यूरोप और मध्य पूर्व में और भारतीय (Indian), मध्य कालीन और आधुनिक पश्चिम ज्योतिष सहित कुंडली ज्योतिष की कई मुख्य प्रथाएँ, हेलेनिस्टिक परम्पराओं से उत्त्पन्न हुई हैं
कुंडली[संपादित करें]
कुण्डलिनी ज्योतिष का केन्द्र और उसकी शाखाएं, कुंडली या ज्योतिष के लेखाचित्र की गणना है। यह द्वि-आयामी रेखाचित्र प्रस्तुति, दिए गए समय और स्थान पर, पृथ्वी पर स्थिति के सहारे, स्वर्ग में आकाशीय पिंडों की आभासी स्थिति को दर्शाता है। कुंडली भी बारह विभिन्न खगोलीय गृहों (houses) में विभाजित हैं जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का निर्धारण करते हैं। कुंडली में जो गणना होती है उसमें गणित और सरल रेखागणित शामिल होती है जो की स्वर्गीय निकायों की स्पष्ट स्थिति और समय का खगोलीय सारणी पर आधारित होती है। प्राचीन हेलेनिस्टिक ज्योतिष में आरोह कुंडली के पहले आकाशीय गृह को परिलक्षित करता था। यूनानी में आरोह के लिए होरोस्कोपोस शब्द का इस्तेमाल किया जाता था जिससे होरोस्कोप शब्द की उत्पत्ति हुई.आधुनिक समय में, यह शब्द ज्योतिष लेखा-चित्र को दर्शाता है।
कुंडली ज्योतिष की शाखाएं[संपादित करें]
कुंडली ज्योतिष की परम्पराओं को चार शाखाओं में विभाजित किया जा सकता है जो की विशिष्ट विषयों या उद्देश्यों की ओर निर्दिष्ट हैं। अक्सर, ये शाखाएं एक अनूठे प्रकार की तकनीकों का समुच्चय या फिर भिन्न क्षेत्र के लिए प्रणाली के मूल सिद्धांतों के विभिन्न प्रयोगों का इस्तेमाल करती हैं। ज्योतिष के कई अन्य उप-समुच्चयों और प्रयोगों का आरम्भ चार मौलिक शाखाओं से हुआ है।
- नवजात ज्योतिष (Natal astrology), व्यक्ति की जन्म-पत्री का अध्ययन है जिसके आधार पर व्यक्ति के बारे में और उसके जीवन के अनुभवों के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।
- कतार्चिक ज्योतिष (Katarchic astrology) में चुनावी (electional) और घटना ज्योतिष दोनों शामिल हैं। इनमें से पहले ज्योतिष में ज्योतिष के ज्ञान का उपयोग किसी उद्यम या उपक्रम को शुरू करने के लिए शुभ घड़ी का पता लगाने के लिए किया जाता है और बाद वाले का उपयोग किसी घटना के होने के समय से उस घटना के बारे में सब कुछ समझने के लिए किया जाता है।
- प्रतिघंटा ज्योतिष (Horary astrology) में ज्योतिषी किसी प्रश्न का जवाब, उस प्रश्न को पूछे जाने के क्षण का अध्धयन करके देता है।
- सांसारिक या विश्व ज्योतिष (Mundane or world astrology), मौसम, भूकंप और धर्म या राज्यों के उन्नयन एवं पतन सहित दुनिया में होने वाली विभिन्न घटनाओं के बारे में जानने के लिए ज्योतिष का अनुप्रयोग. इसमें ज्योतिष युग (Astrological Ages), जैसे की कुंभ युग (Age of Aquarius), मीन युग, इत्यादि शामिल हैं। प्रत्येक युग की लम्बाई लगभग २,१५० साल होती है और दुनिया में कई लोग इन महायुगों को ऐतिहासिक और वर्तमान घटनाओं से सम्बद्ध मानते हैं।21 8 1986
ज्योतिष का इतिहास[संपादित करें]
उत्पत्ति[संपादित करें]
ज्योतिष के जो सिद्धांत बाद में एशिया, यूरोपऔर मध्य पूर्व में विकसित हुए उनका वर्णन प्राचीन बाबिल (Babylonians) में भी है और खगोलीय चिन्हों की उनकी प्रणाली दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में संकलित की गई।[20] बाद में खगोलीय चिन्हों की यहीं प्रणाली प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में बाबिल से भारत, मध्य पूर्व और मिस्र में फैली, जहाँ यह पहले से विद्यमान ज्योतिष के स्वदेशी रूपों के साथ मिल गई।[21] बाबिल की ज्योतिष मिस्र में आरम्भ में चौथी शाताब्ब्दी के मध्य ईसा पूर्व में आई थी और दूसरी और पहली शाताब्ब्दी के शुरुआत में ऐलेक्जेन्द्रिया की विजय के बाद (Alexandrian conquests), यह बाबिल ज्योतिष, मिस्त्र सभ्यता के दक्षिणी ज्योतिष से मिश्रित हो गई और कुंडली ज्योतिष का निर्माण किया। (horoscopic astrology) ज्योतिष के इस नवीन प्रारूप की उत्पत्ति ऐलेक्जेन्द्रिया मिस्र (Alexandrian Egypt) की मानी जाती है, जल्द ही ये प्राचीन दुनिया में यूरोप, मध्य पूर्व और भारत में फैल गई।
आधुनिक युग के पहले[संपादित करें]
खगोल विज्ञान और ज्योतिष के बीच अन्तर जगह जगह पर अलग है, वे दृढ़ता से प्राचीन भारत[22][23], प्राचीन बाबिल और मध्यकालीन यूरोप (medieval Europe) से जुड़ी हुई है, लेकिन हेलेनिस्टिक दुनिया (Hellenistic world) से एक हद तक अलग है। ज्योतिष और खगोल विज्ञान (astrology and astronomy) के बीच पहला शब्दार्थिक (semantic) अन्तर ११ वीं सदी में फारसी खगोलज्ञ (Persian astronomer) अबू- रेहान-अल-बिरूनी (Abū Rayhān al-Bīrūnī)[24] द्वारा दिया गया था। (ज्योतिष और खगोल विज्ञान (astrology and astronomy) देखें).
ज्योतिष उद्यमों से प्राप्त किये गए खगोलीय ज्ञान का स्वरूप इतिहास में प्राचीन भारत से लेकर माया सभ्यता से मध्यकालीन यूरोप तक कई संस्कृतियों में दोहराया गया है, . इस ऐतिहासिक योगदान को देखते हुए, ज्योतिष को रसायन विद्या (alchemy) की तरह छद्म विज्ञान (pseudoscience) के साथ-साथ प्रोटो साइंस (protoscience) कहा जाने लगा (पश्चिमी ज्योतिष तथा रसायन विद्या नीचे से देखें).
आधुनिक युग से पहले कभी ज्योतिष को बिना आलोचना के स्वीकार नहीं किय गया; हेलेनिस्टिक संशयी लोगों, गिरिजाघर अधिकारियों और मध्यकालीन मुस्लिम खगोलशास्त्रियों (Muslim astronomers) जैसे की अल-फराबी (Al-Farabi), (अलफरेबिउस), इब्न-अल- हेथम (Ibn al-Haytham), (आल्हाजें), अबू-रेहान-अल-बिरूनी (Abū Rayhān al-Bīrūnī), ऐविसेना (Avicenna) और ऐविरोज़ ने इसे काफी चुनौतियां दीं. ज्योतिष को झूठा ठहराए जाने के वैज्ञानिक (ज्योतिष शास्त्रियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले तरीके अनुमान पर आधारित (conjectural) थे न की प्रयोग (empirical) पर) और धार्मिक (रूढिवादी इस्लामी विद्द्वानों (Islamic scholars) से विवाद) दोनों ही कारण थे।[25] इब्न क़य्यिम-अल जव्जिय्या (Ibn Qayyim Al-Jawziyya) ने (१२९२-१३५०) अपने मिफ्थ डार अल-सा केदाह में ज्योतिष और भविष्यवाणी (divination) का खंडन करने के लिए प्रयोगाश्रित तर्कों का इस्तेमाल किया है।[26]
कई प्रमुख विचारकों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों, जैसे की पाइथागोरस, प्लेटो, अरस्तू (Aristotle), गैलेन (Galen), पारासेलसस (Paracelsus), गिरोलामो कार्डन (Girolamo Cardan), निकोलस कोपर्निकस (Nicholas Copernicus), ताकी अल- दीन (Taqi al-Din), ताईको ब्राहे, गैलीलियो गैलीली, जोहानिस केप्लेर, कार्ल जंग (Carl Jung) और दूसरों ने या तो ज्योतिष के सिद्धांतों का प्रयोग किया या ज्योतिष में उल्लेखनीय योगदान दिया.[2][27]
आधुनिक दृष्टिकोण[संपादित करें]
आधुनिक समय में ज्योतिष व्यवहार में कई नवरचनाएं हुई हैं।
पश्चिमी ज्योतिष[संपादित करें]
- २० वीं शताब्दी के मध्य के दौरान, अल्फ्रेड विट्टे (Alfred Witte) और उनके बाद रेंहोल्ड इबरटीन (Reinhold Ebertin) ने केन्द्र बिन्दुओं के कुंडली इस्तेमाल के (midpoints in Astrology) विश्लेषण में अग्रगामी रहे. (ज्योतिष में केंद्रबिंदु)
- १९३० के दशक से १९८० के दशक तक डेन रूध्यार (Dane Rudhyar), लिज़ ग्रीन (Liz Greene) और स्टीफेन अरोयो (Stephen Arroyo) सहित कई ज्योतिष शास्त्रियों ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण (astrology for psychological analysis) के लिए ज्योतिष का प्रयोग किया, जिनमें से कुछ कार्ल ज़ंग (Carl Jung) जैसे महान मनोवैज्ञानिक भी थे।
- १९३० के दशक में डॉन नेरोमन (Don Neroman), "एस्ट्रोजियोग्राफी" के नाम से एक स्थानीय ज्योतिष शास्त्र (Locational Astrology) को विकसित करके इसे यूरोप में लोकप्रिय भी बनाया. १९७० के दशक में अमेरिका के ज्योतिषी जिम लेविस ने (Jim Lewis)आस्ट्रोकार्टोग्राफी नाम की (Astrocartography). एक लोकप्रिय और अलग दृष्टिकोण विकसित की. दोनों ही तरीकों से स्थान में परिवर्तन के साथ जीवन की स्थितियों में आने वाले बदलाओ को जाना जाता है।
वैदिक ज्योतिष[संपादित करें]
- १९६० के दशक में,एच.आर.शेषाद्रि (H.R. Seshadri Iyer) अय्यर ने योग बिंदु को जोड़कर एक प्रणाली शुरू की जो की पश्चिम में लोकप्रिय हुई.
- १९९० के दशक के शुरूआती दौर से, भारतीय वैदिक ज्योतिष शास्त्री और लेखक वी. के. चौधरी (V.K. Choudhry) ने जन्मपत्री पढने के लिए (Systems' Approach for Interpreting Horoscopes) प्रणाली दृष्टिकोण (भविष्य बताने वाला ज्योतिष) ज्योतिष, की एक सरल प्रणाली की रचना की.[28] यह प्रणाली ज्योतिष, ज्योतिष जानने की कोशिश कर रहे हैं लोगों की मदद करती है, इसे "एस ए" भी कहते हैं।
- स्वर्गीय के. एस. कृष्णामूर्ति (K. S. Krishnamurti) ने विचाराधीन ग्रह की दशा (dasha) के अनुपात को तारों (stars) से उप-विभाजित करके तारों के विश्लेषण पर आधारित कृष्णामूर्ति पद्धति का विकास किया, यह प्रणाली "के पी" और "उप सिद्धांत" के नाम से जानी जाती है।
दुनिया की संस्कृति पर प्रभाव
ज्योतिष विज्ञान का पश्चिमी तथा पूर्वी संस्कृतियों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। मध्य कालीन युग में, जब शिक्षित लोग ज्योतिष में विश्वास करते थे, स्वर्गिक पिंडों को ज्ञान की प्रणाली और उनके नीचे स्थित संसार का परावर्तन करने वाली प्रणाली के रूप में माना जाता था।
ज्योतिष ने विज्ञान भाषा और साहित्य दोनों को प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए, इन्फ़्लुएन्ज़ा या जुकाम (influenza) शब्द मध्यकालीन लैटिन शब्द इन्फ़्लुएन्शिय से लिया गया, इसका नाम ऐसा इसलिए पड़ा क्योंकि चिकित्सकों का मानना था की महामारी प्रतिकूल ग्रहों और तारकीय प्रभाव की वजह से फैलती है।[29] शब्द आपदा, "डिसास्टर" इटालियन शब्द डिसैस्ट्रो से लिया गया है जो की एक "नाकारात्मक उपसर्ग"[30] डिस और लैटिन शब्द ऐस्टर " तारा" से व्युत्पन्न है, जिसका मतलब है बुरे तारे या "दुष्ट-नक्षत्र". विशेषण, "ल्यूनेटिक" (ल्यूना/चन्द्रमा), "मेर्कयुरिअल" (मर्कारी), "मैथुनिक", (शुक्र) सामरिक, (मंगल (Mars)), "आनन्दित" (बृहस्पति/ जोव) और "सीसक" (शनि) पुराने शब्द हैं जिनका प्रयोग उन व्यक्तिगत गुणों को बताने के लिए किया जाता था जो ग्रहों के ज्योतिष लक्षणों से सबसे ज़्यादा मिलते थे या प्रभावित होते थे, इनमे से कुछ गुण प्राचीन रोमन देवताओं के गुणों से व्युत्पन्न हैं और उनका नाम भी उसी आधार पर रखा गया है। साहित्य में, कई लेखकों विशेषकर जिओफ्फ्रे चौसर (Geoffrey Chaucer)[31][32][33] और विलियम शेक्सपियर,[34][35] ने अपने पात्रों का वर्णन करने के लिए ज्योतिष के चिनों का प्रयोग किया और इस तरीके से उस विवरण में बारीकी पैदा की. हाल ही में, मिचेल वार्ड ने कहा था की क्रोनिकाल्स ऑफ़ नारनिया (Chronicles of Narnia) के रचयिता सी.एस.लुईस (C.S. Lewis) ने अपनी रचना को सात स्वर्गों के पात्रों और चिन्हों से सराबोर किया। अक्सर, ज्योतिष प्रतीकों को समझने वाले साहित्यों की सराहना करने की आवश्यकता है।
कुछ आधुनिक विचारकों विशेषकर, कार्ल जंग[36] का विश्वास था की ज्योतिष में दिमाग को पढने और भविष्य बताने की ताकत हैशिक्षा के क्षेत्र में ज्योतिष मध्य कालीन यूरोप (medieval Europe) की विश्व विद्यालयी शिक्षा (university education) में प्रतिबिंबित होता है, जिसे सात पृथक क्षेत्रों में विभाजित किया गया था, जिनमे से प्रत्येक एक ग्रह द्वारा प्रस्तुत किया जाता था और उसे सात स्वतंत्र कलाओं (liberal arts) के रूप में जाना जाता था। दांते अलीघिरी ने विचार किया कि ये कलाएं जो आज उस विज्ञान में बदल चुकी हैं, जिसे हम भली भाति जानते हैं, उसी ढाँचे में फिट बैठती हैं जिसमें ग्रहों को फिट किया जाता है। संगीत में ज्योतिष शास्त्र का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है, ब्रिटिश संगीतकार गुस्तव होस्ट (Gustav Holst) द्वारा बनाया गया ऑर्केस्ट्रा सूट, "द प्लैनेट्स (The Planets)", जिसका ढांचा ग्रहों के ज्योतिष चिन्हों पर आधारित है।
ज्योतिष और विज्ञान[संपादित करें]
फ्रांसिस बेकन (Francis Bacon) और वैजानिक क्रान्ति के समय से शुरू हुई वैज्ञानिक शिक्षण कि नई शाखाएं, प्रायोगिक अवलोकनों पर आधारित प्रणालीबद्ध प्रायोगिक प्रेरणा के तरीकों पर आधारित होने लगी.[37] इस बिन्दु पर, ज्योतिष शास्त्र और खगोलमिति अलग-अलग हो गए, खगोलमिति एक केन्द्रीय या मुख्य विज्ञान के रूप में उभरा जबकि ज्योतिष शास्त्र प्रकृति वैज्ञानिकों द्वारा एक अंधविश्वास या एक गुप्त विज्ञान के रूप में देखा गया। यह अलगाव अठारहवी और उन्नीसवीं सदी के दौरान और तेज़ हो गया।[38] साँचा:Infobox Pseudoscience
समकालीन वैज्ञानिकों जैसे की रिचर्ड डौकिंस (Richard Dawkins) और स्टीफेन हाउकिंस (Stephen Hawking) ने ज्योतिष शास्त्र को अवैज्ञानिक कहा[39][40] और पैसिफिक खगोलमिति समाज (Astronomical Society of the Pacific) के ऐनड्रयू फ्राकनोई (Andrew Fraknoi) ने इसे छद्म विज्ञान कहा.[41] १९७५ में, अमरीकी मानववादी संगठन (American Humanist Association) ने ज्योतिष शास्त्र में विश्वास करने वालों के सन्दर्भ में कहा कि वो लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं जबकि उनके विश्वास का कोई प्रमाणित वैज्ञानिक आधार नहीं है बल्कि उसके ख़िलाफ़ कई प्रमाण हैं।[10] ज्योतिर्विद कार्ल सेगन ने पाया की वो इस वक्तव्य पर हताक्षर नहीं कर सकते, इसलिए नहीं की वो ये सोचते है की ज्योतिष मान्य है बल्कि इसलिए क्यूंकि उन्हें लगता है की इस वक्तव्य का लहजा सत्तावादी (authoritarian) है।[42][43] सेगन ने कहा की वो एक ऐसे वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने के इच्छुक होते और ज्योतिष के विश्वास के मुख्य सिधान्तों को नकारते, जो इस वक्तव्य से ज्यादा विश्वासोत्पादक और इस से कम विवाद पैदा करने वाला होता.[44]
भले ही एक समय में ज्योतिष शास्त्र का बड़ा ही सिमित स्थान रहा हो, लेकिन २० वी शताब्दी की शुरुआत से ही ये ज्योतिष शास्त्रियों के बीच अनुसंधान का विषय रहा है। २० वी शताब्दी में नवजात ज्योतिष अनुसंधानों के ऐतिहासिक अध्धयन में, ज्योतिष आलोचक जैफरे डीन और सह लेखकों ने एक मुकुलित अनुसंधान कार्य का उत्पादन किया, जो की प्राथमिक रूप से ज्योतिष शाश्त्र्दियों के समुदाए में ही रहा.[45]
अनुसंधान[संपादित करें]
अध्धयन ज्योतिष अनुमान और कार्यकारी तरीके से निकाले गए (operationally-defined) परिणामो के बीच सांख्यिकीय महत्व (statistically significant) से सम्बन्ध स्थापित करने में बार बार असफल रहे हैं।[9] ज्योतिष में प्रभाव आकार (Effect size) के अध्धयन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं की ज्योतिष अनुमानों की औसत सटीकता संयोग से होने वाली चीज़ों से ज्यादा नहीं है और ज्योतिष का कथित प्रदस्र्शन आलोचनात्मक निरिक्षण के समय पूरी तरह गायब हो जाता है।[46]संज्ञानात्मक (cognitive) व्यवहार (behavioral), शारीरिक और अन्य परिवर्तनशील घटकों की जांच के लिए अध्धयन करते समय, "टाइम ट्विन्स (time twins)" के एक ज्योतिष अध्धयन ने ये प्रर्दशित किया की मानव लक्षण जन्म के समय सूर्य, चंद्र और ग्रहों से प्रभावित नहीं होती.[46][47] ज्योतिष पर संशय करने वालों का ये भी कहना है की ज्योतिष व्याख्याओं और किसी के व्यक्तित्व के विवरण की कथित (fact) सटीकता इस वजह से है क्यूंकि लोग सकारात्मक 'बिन्दुओं या हिट्स' को बढ़ा-चढा कर लेते हैं और जो कुछ भी पसंद नहीं आता या फिट नहीं होता उसे नज़र अंदाज़ कर देते हैं विशेषकर तब जब विवरण के लिए अस्पष्ट भाषा का प्रयोग किया गया हों (vague language is used).[46] वे यह भी तर्क देते हैं की अनियंत्रित शिल्पकृतियों के कारण ज्योतिष के साक्ष्यों को अक्सर गलत रूप में देखा जाता है।[48] "एस्ट्रो -ट्विन्स" के १५, ००० नमूनों का एक बड़े पैमाने पर अध्ययन, २००६ में प्रकाशित हुआ था। इसने जन्म की तारीख और सामान्य बुद्धि और व्यक्तित्व के व्यक्तिगत अन्तर के बीच सम्बन्ध की जांच की और इस निष्कर्ष पर पहुँचा की दरअसल इनके बीच कोई सम्बन्ध है ही नहीं.[49] यह भी पाया गया है की राशि चक्रों और प्रतिभागियों के व्यक्तिगत गुण के बीच कोई रिश्ता नहीं होता है।[49]
फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिक और सांख्यिकीविद माइकल गौकुएलिन (Michel Gauquelin) ने दावा किया की उन्होंने कुछ ग्रहों की स्थिति और कुछ मानवीय गुण जैसे वृति या पेशे के बीच सम्बन्ध पाया है।[50] गौकुएलिन के सबसे व्यापक रूप से ज्ञात दावे को मंगल प्रभाव (Mars effect) के रूप में जाना जाता है, जो की मंगल ग्रह से सम्बन्ध प्रर्दशित करते हुए ये दिखाता है की आम आदमी की तुलना में किसी प्रसिद्ध खिलाडी के जन्म के समय मंगल ग्रह प्रायः आकाश में कुछ विशिष्ठ स्थितियों में होता है यही दावा रिचर्ड तर्नस (Richard Tarnas) ने अपनी कृति ब्रह्मांड और मानसिकता में भी किया है इसमे उन्होंने ग्रहों की स्थिति और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण घटनाओं और लोगों के बीच संबंधों की खोज की है १९५५ में इसके मूल प्रकाशन से, मंगल प्रभाव, इसे खारिज करने वाले कई आलोचनात्मक अध्ध्यनों और संशयी (skeptical) प्रकाशनों का विषय रहा है,[51][52][53] और साथ ही मंगल प्रभाव के मूल दावों का समर्थन करने वाले या उसे विस्तृत करने वाले कई अध्धयन भी सीमान्त पत्रों (fringe journals) में प्रकाशित हुए हैं।[54][55] गौकुएलिन की खोज पर विज्ञान की मुख्यधारा ने विशेष ध्यान नहीं दिया.
अनुसंधान में बाधाएं[संपादित करें]
ज्योतिषशास्त्रियों का तर्क है की आज ज्योतिष शास्त्र में वैज्ञानिक अनुसंधान करने में कुछ महत्वपूर्ण बाधाएं हैं,[56][57] जिसमें शामिल है - धन की कमी, ज्योतिष शास्त्रियों द्वारा विज्ञान और सांख्यिकी में पृष्ठ भूमि की कमी,[58] और संशय करने वालों एवं वैज्ञानिकों का ज्योतिष शास्त्र में पर्याप्त रूप से दक्ष ना होना[56][57][59] ज्योतिष शास्त्र में वैज्ञानिक अनुसन्धान (scientific research) के क्षेत्र में प्रकाशित पत्रों की संख्या बहुत कम है (यानी वैज्ञानिक अनुसंधान की तरफ़ निर्दिष्ट ज्योतिष पत्र या ज्योतिष अनुसंधान का प्रकाशन करने वाले वैज्ञानिक पत्र (scientific journal) दोनों ही कम संख्या में हैं) कुछ ज्योतिष शास्त्रियों का मानना है की आज ज्योतिष का काम करने वाले कुछ लोग वैज्ञानिक जांच का प्रयोग इसलिए करते हैं क्यूंकि उन्हें लगता है की दैनिक रूप से ग्राहकों के साथ काम करने से उनका व्यक्तिगत सत्यापन (personal validation) होगा.[57][60]
ज्योतिष शास्त्रियों द्वारा दिया गया एक और तर्क है कि ज्योतिष के ज्यादातर अध्ययन में ज्योतिष अभ्यास की प्रकृति प्रतिबिंबित नहीं होती और वैज्ञानिक पद्धति (scientific method) ज्योतिष पर लागू नहीं होती.[61][62] ज्योतिष पर विचार रखने वाले कुछ लोगों का तर्क है कि ज्योतिष के विरोधियों के इरादे और मौजूदा नजरिए के चलते ज्योतिष कि सटीकता मालूम करने के लिए होने वाले प्रोयोगों में, चेतन या अचेतन रूप से, जाँची जाने वाली परिकल्पना के निर्माण, जांच के संचालन और परिणाम की सूचना पक्षपात पूर्ण ढंग से दी जाती हैं .[2][9][10][59][63]
तंत्र[संपादित करें]
ज्योतिषी ज्योतिष के भौतिक तंत्र को प्रस्तुत करने में लगातार विफल रहे हैं,[64][65] और कुछ आधुनिक ज्योतिषी मानते हैं कि स्वर्गीय निकायों और सांसारिक घटनाओं में कारण और परिणाम का एक सीधा रिश्ता हैं।[57]एस्ट्रोनामिकल सोसाइटी ऑफ़ द पैसिफिक (Astronomical Society of the Pacific) द्वारा प्रकाशित एक सम्पादकीय में ये लिखा गया है की ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है जिस से की ये कहा जा सके की आकाशीय पिंडों का स्थलीय मामलों को प्रभावित करने में कोई योगदान हो सकता है[9] कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि ज्योतिष के प्रेक्षण और घटनाओं के बीच ठीक उसी तरह का अकारण (acausal) और शुद्ध रूप से सहसमबद्धता (correlative) का रिश्ता है, जैसे की कार्ल जंग दिए गए समकालिक (synchronicity) सिद्धांत में बताया गया है।[66] दूसरों भविष्यवाणी (divination) में इसका आधार देखते हैं।[67] फिर भी कुछ का ये तर्क है की प्रयोग पर आधारित सहसम्बन्ध स्वयं अपनि ऐपिस्टेमोलाजी (epistemologically) के बल पर खड़े हो सकते हैं और उन्हें किसी भी सिद्धांत या तंत्र के सहारे की जरूरत नहीं है।[59] कुछ पर्यवेक्षकों के लिए, ये गैर-यंत्रवादी अवधारणाएं इस बात की व्यवहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं कि ज्योतिष को वैज्ञानिक मान्यता दी जाए और कुछ ने तो ज्योतिष में वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग को पुरी तरह अस्वीकार कर दिया है।[59] दूसरी ओर कुछ ज्योतिष, ये मानते हैं कि यदि पर्याप्त परिष्कृत विश्लेषणात्मक तरीकों का उपयोग किया जाए तो ज्योतिष, वैज्ञानिक पद्धति के अधीन है और अपने इस दृष्टिकोण का समर्थन करने के लिए वो इस क्षेत्र में कई पथप्रदर्शी अध्धयन भी करते हैं[68] नतीजतन, कई ज्योतिषियों ने सांख्यिकीय सत्यापन पर आधारित ज्योतिष का अध्धयन जारी रखने की वकालत की.[69]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
- ज्योतिष प्रणालियां
- ज्योतिष युग (Astrological age)
- ज्योतिष के पहलु (Astrological aspects)
- ज्योतिष संगठन (Astrological organizations)
- ज्योतिष चिन्ह (Astrological sign)
- ज्योतिष प्रतीक (Astrological symbols)
- दा लियू रेन (Da Liu Ren)
- भाव (ज्योतिष) (House (astrology))
- ज्योतिषियों की सूची (List of astrologers)
- ज्योतिष परंपराओं, प्रकार और प्रणालियों की सूची (List of astrological traditions, types, and systems)
- ज्योतिष में ग्रह (Planets in astrology)
- क्वी मेन दुं जिया (Qi Men Dun Jia)
- राशि चक्र (Zodiac)
- प्रौद्योगिकी और विज्ञान के संबंध में ज्योतिष विज्ञान
- ज्योतिष विज्ञान और खगोल विज्ञान (Astrology and astronomy)
- ज्योतिष विज्ञान और कम्प्यूटर (Astrology and computers)
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